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7 May 2025 · 1 min read

*मनः संवाद----*

मनः संवाद—-
07/05/2025

मन दण्डक — नव प्रस्तारित मात्रिक (38 मात्रा)
यति– (14,13,11) पदांत– Sl

मन रे तू सदा विलासी, रूप रंग के जाल में , फँस जाता अत्यंत।
भोगलिप्सु बन इतराता, भोगवादिता का भ्रमर, बनता सबका कंत।।
कामुकता में रूचि अधिक, गंदे दृश्यों का रसिक, उत्तेजक रसवंत।
विलासिता ही लक्ष्य किया, भोगवास डेरा किया, कब हो इसका अंत।।

मन रे तेरी ये उलझन, कब सुलझेगी क्या खबर, ये आकर्षण छोड़।
अब तक समझ नहीं पाया, कब समझेगा मूर्ख तू, अपनी जिद को तोड़।।
जिसको सच्चा सुख माने, क्षण भर का उन्माद है, इच्छा तनिक मरोड़।
चरम परम सुख खोज अरे, कभी कहीं भी कम न हो, उससे नाता जोड़।।

मन रे किये कर्म ऐसे, असंतुष्ट रहना पड़े, खिंची वही लकीर।
कभी तुष्टि की सोच नहीं, दिखलाता संसार को, तू है महा फकीर।।
लेकिन तेरी तू जाने, अंदर से रहता सतत, व्याकुल बहुत अधीर।
जो पाया संतुष्ट रहो, धन जन नारी पुत्र से, जो भी मिला शरीर।।

— डॉ. रामनाथ साहू “ननकी”
संस्थापक, छंदाचार्य, (बिलासा छंद महालय, छत्तीसगढ़)
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