नामकरण ( नए रास्ते)

रोहतक-1974
मुझे याद है मैंने बचपन में पढ़ा था कि इतिहास भूगोल पर निर्भर करता है , और मैं इससे सहमत हूँ , परन्तु मेरी नज़र में इतिहास दो और चीजों से भी बनता है , और वह है कि हम मनुष्यों ने प्रकृति को कितना समझा है और समझ कर कितना आत्मसात् किया है ।
वे गर्मियों के दिन थे , ज़मीन सुबह से देर रात तक आग उगल रही थी , स्कूल में दो महीने की छुट्टियाँ थी , और लोलिता अपनी सुबह की उलटियों से परेशान थी. उसकी प्रेगनेंसी पूरी गली की चर्चा का विषय बनी हुई थी , हर किसी के पास उसे ज्ञान देने के लिए कुछ न कुछ था , उसे खाने से लेकर वह क्या पढ़ती है पर पूरे मुहल्ले की नज़र थी । उसकी सास अच्छी इन्सान थी , परन्तु वह दूसरों से आसानी से प्रभावित हो जाने वाली औरत भी थी ।
एक दिन वह सुबह नाश्ता कर रही थी , सास जल्दी से दौड़कर आईं और उन्होंने उसके पराठे पर बहुत सा घी उड़ेल दिया , क्योंकि पिछले दिन किसी ने उन्हें ज्ञान दिया था कि घी खाने से उसकी डिलीवरी आसानी से हो जायेगी । लोलिता को घी देखने भर से इतनी मितली हुई कि उसे बाथरूम भागना पड़ा । लोलिता को लगता था सास की नज़रें सारा दिन उसका पीछा कर रही हैं । उसके पास स्वयं के लिए कोई स्थान नहीं था, उसके भीतर एक ज्वालामुखी भभक रहा था जिसके फट जाने का ख़तरा हमेशा बना रहता था ।
उन दो महीनों में उसने स्वयं को बहुत असहाय पाया । दुष्यंत किसी भी क़ीमत पर अपनी माँ कीं शिकायत नहीं सुनना चाहता था , पिता ने उसे पहले ही चेतावनी दे दी थी , माँ की अपनी मजबूरियाँ कम नहीं थी , वह बस अपनी भावनाओं को दबाने और बाथरूम में जाकर रोने तक की अस्त व्यस्तता में उलझी थी ।
स्कूल दोबारा खुल गए थे , और वह जाने के लिए तैयार थी , तभी सास कमरे में आई और उससे नौकरी छोड़ कर आराम करने का आग्रह करने लगी, उन्होंने कहा ,
“ तुम्हारे पैसे की किसी को कोई ज़रूरत नहीं है , और यदि तुम इस हालत में काम करती रही तो तुम्हारी तबीयत और ख़राब हो सकती है ।”
लोलिता को समझ नहीं आया कि इस बात का वह किया जवाब दे , कैसे समझाये कि पढ़ाना और सीखना अपने आप में कितना संतोषप्रद होता है । वह कुछ क्षण चुपचाप अपने भीतर ज्वालामुखी को समेटे खड़ी रही । इस माहौल में घर रहने की संभावना उसे स्कूल जाने से कहीं अधिक बदतर लगी , और अचानक फट पड़ी ,
“ बच्चे दुनिया भर में हर पल जन्म ले रहे हैं , मैं नहीं चाहती हर ऐरा , गैरी , नत्थू मुझे आकर सलाह दे , मैं वही करूँगी जो डाक्टर कहेगा और डाक्टर ने मुझे आराम करने की सलाह नहीं दी ।”
यह घोषणा किसी महायुद्ध की घोषणा से कम नहीं थी ।
उस दिन स्कूल के पुस्तकालय में फसे एक किताब मिली , ‘प्रेगनेंसी और चाइल्ड केयर ‘, और विश्वास कीजिए, उन दिनों जब ख़बरें रेडियो पर सुनते थे , और स्कूल के पुस्तकालय में दो सौ से अधिक पुस्तकें नहीं होती थी, यह पुस्तक उसके लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं थी ।
वह अपनी सास का अपमान नहीं करना चाहती थी , पर जानती थी उन्होंने यही महसूस किया था , पहले उसने उनकी स्कूल न जाने की सलाह नहीं मानीं थी और अब अंग्रेज़ी में किताब पढ़कर वह उनके पूरे अनुभव को , उनके अस्तित्व को चुनौती दे रही थी । उन्हें लग रहा था जैसे उनका पूरा बुढ़ापा संकट में आ गया है , लोलिता पुरानी संस्कृति के सारे नियम तोड़ रही थी । अब वह उनके हिसाब से वैसी लड़की नहीं थी जो परिवार को जोड़े रखती है , अब घर के बढों के विचारों की परवाह न करने वाली ख़तरनाक लड़की थी , शिक्षा ने उसे पर दे दिये थे और वह वही करेगी जो उसका मन करेगा ।
दुष्यंत और ससुर जी घर की गर्म होती हवाओं की तपन महसूस कर रहे थे , पर उन्होंने औरतों के मामले में दख़लंदाज़ी न करना बेहतर समझा ।
अब वह और उसकी सास तभी बात करते जब आवश्यकता होती , परन्तु जल्द ही उसकी सास का रंग पीला पड़ने लगा और लोलिता को अपराध भाव सताने लगा । वह अपने पति को दिया वचन नहीं निभा पा रही थी । बचपन में सुनी बुरी बहुओं की सारी कहानियाँ उसे याद आ रही थी । वह अपनी ही नज़रों में गिर रही थी, उसे लग रहा था उसमें सहनशक्ति और सहानुभूति की कमी है । एडम की ईव को सेब ने ललचाया था और उसे अपने सही ग़लत के चुनाव के तरीक़ों ने, और यह पाप था !
सर्दियों में उसने बेटी को घर में ही जन्म दिया क्योंकि सास की आत्मा अस्पताल के नाम से ही काँप जाती थी , और घर के पुरुषों ने अनुभवी स्त्री के सामने घुटने टेक दिये थे।
पहली बार नन्हीं बेटी को गोद में उठाते हुए सास ने स्नेह से कहा, “ बेटी होना भी अच्छा होता है , वह घर को भर देती है, और तुम फ़िक्र मत करो , अगली बार लड़का होगा । “
लोलिता ने वितृष्णा से अपना मुँह घुमा लिया ।
लोग उससे मिलने आ रहे थे , कमरे के बाहर बरांडे में ससुर जी किसी से कह रहे थे ,” एक लड़की तो ठीक है , पर ये भी कहीं अपनी माँ की तरह छ बेटियाँ न जन दे । “
सुनकर लोलिता के आँसू नहीं रूक रहे थे, उसका जीवन अपनी माँ के जीवन से अलग कहाँ था !!!
रात को उसने अपने पति से पूछा, “ आप खुश हैं न? “
“ हाँ । तुम क्यों पूछ रही हो ?”
“ क्योंकि यह लड़की है।”
“ कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता , मैं इसका खर्चा उठा सकता हूँ , हाँ पर मैं यह ज़रूर चाहता हूँ कि अगर यह तुम्हारी तरह गोरी होती तो और भी सुंदर होती। “
“ वह अपने पापा को ज़्यादा पसंद करती है ।”
दुष्यंत ने मुस्करा कर बेटी को अपनी गोदी में ले लिया ।
“ तुम चिन्तित हो ।” लोलिता ने कहा ।
“ नहीं । “ दुष्यंत ने कहा ।
पर वह जानती थी यहाँ कुछ तो गड़बड़ थी ।
बेटी के नाम संस्करण का दिन आ पहुँचा था , और वे अभी तक नाम पर एकमत नहीं हुए थे । मेहमान अभी धीरे-धीरे आ ही रहे थे कि दुष्यन्त कमरे में कुछ लेने के लिए आए । वह बच्ची को दूध पिला रही थी और उसने उसको मुस्करा कर देखा , दुष्यंत ने भरपूर स्नेह से वह मुस्कराहट लौटा दी ।
“ खुश ?” लोलिता ने पूछा ।
“ आज तो हूँ , इसका नाम रखने का हक़ है मेरे पास !”
“ और .. ?”
“ और एक दिन यह अपने ससुराल चली जायेगी, और मेरे इस पर से सारे अधिकार छिन जायेंगे , फिर मैं इसके ससुराल वालों के सामने सिर झुकाकर खड़ा रहूँगा । “ इसके साथ ही उन्होंने सिर झुकाने का अभिनय किया ।
लोलिता की छाती में यह तीर सा गड गया ।
दुष्यंत के कमरे से निकलने के बाद उसने शांति की साँस ली ।
नामकरण संस्कार चल रहा था जब पंडित जी ने पूछा, “ तो दुष्यंत, आपने क्या नाम सोचा है ?”
इससे पहले कि दुष्यंत कुछ कहते , लोलिता ने पूरी शांति से कहा , “ अग्नि ।”
“ बहुत सुंदर ।” पंडित जी ने कहा । “ अग्नि रोशनी देती है, यह गृहस्थ की आवश्यकता है , यह शुद्ध है , यह हमारी प्रकृति पर विजय का आरम्भ है , यदि इसका सम्मान न करो तो यह जला देती है , यह अपने मार्ग की सब बाधाओं को नष्ट कर, नए जीवन का मार्ग बनाती है । बहुत अच्छे लोलिता ।”
शशि महाजन
क्रमशः