शर्तें
मत जीना जीवन,
किसी के शर्तों पर ।
कि न जीने देंगी ,
न ही मरने वे ।
तलाशते ही रहे ,
ताउम्र जिसे ।
तन्हाईयों में भी ,
इक दर्द सा वो देता रहा।
बन्धे थे शर्तों की ,
अजीब बन्धन में।
न तोड़ ही सके ,
न ही स्वीकार हुआ ।
जियो तो जियो ,
अपने ही शर्तों पर।
हौसला भी चाहिए ,
और चाहत भी।
नाकामियांँ तो,
आनी-जानी हैं ।
मंजिलें तो मिलेंगी ही,
कभी न कभी।
नजर उठा के जियो,
न की गिरा के उन्हें।
नजर में अपनी उठे,
तो ही उठना है।
न साथ अश्क भी देता
मुझ जैसों का है।
जिये तो दूसरों के,
झूठे सहारे पर जिये ।
अब तो लगता है की,
कोई किसी का भी नहीं।
सारे रिश्ते व नाते,
महज़ छलावे हैं।
छोड़ के साथ चल देते हैं,
वक्त के साथ।
वक्त बस अपना,
निकाल लेते हैं।
मत जीना जीवन,
किसी के शर्तो पर।
कि न जीने ही देंगी ,
ना ही मरने वे।
कठिनाइयों से,
डरना कैसा।
आयेंगी,
चली जायेंगी।
दूसरों के परवाज़ पर,
उड़ना न कभी।
छिनते ही,
जमीं से भी,
उठ न पाओगे ।
जियो तो जियो,
बुलन्द हौसलों के साथ जियो ।
ऊँचाइयाँ भी,
अम्बर की छोटी ही लगें।
डॉ. सरला सिंह,”स्निग्धा”
दिल्ली।