कसमसाता आदमी
अदृश्य सा एक जाल है
जिसमे बंधा है आदमी
बेशक लगाता जोड़ है
है कसमसाता आदमी
जिस ताप में वह जल रहा
दिखती कहाँ वो आग है
उठती नही फोले मगर
हर पल जलन में आदमी
अंदर है कुछ बाहर है कुछ
कैसे दिखेगा ये भला
है वक़्त की रफ्तार ये
हर पल मुखोटे है लगाता आदमी
मिलता नही है गम जिसे
उसे कीमत खुशी की क्या पता
फिर खुशी को ही अक्सर
गम समझता आदमी
शौक जीने का है सबको ही ,मगर
हर पल बदलता ज़िन्दगी के मायने
सोचिए है दिन बिताता
या है जीता आदमी
उलझने शाहा बहुत है देखिये
छोड़िये है ज़िन्दगी में रंज कितने
मुस्कुराइये सोच कर सोचे बिना
मुस्कुराता है, मगर है दर्द में हर आदमी
…… विनीता शाहा