Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
5 May 2025 · 1 min read

कसमसाता आदमी

अदृश्य सा एक जाल है
जिसमे बंधा है आदमी

बेशक लगाता जोड़ है
है कसमसाता आदमी

जिस ताप में वह जल रहा
दिखती कहाँ वो आग है

उठती नही फोले मगर
हर पल जलन में आदमी

अंदर है कुछ बाहर है कुछ
कैसे दिखेगा ये भला

है वक़्त की रफ्तार ये
हर पल मुखोटे है लगाता आदमी

मिलता नही है गम जिसे
उसे कीमत खुशी की क्या पता

फिर खुशी को ही अक्सर
गम समझता आदमी

शौक जीने का है सबको ही ,मगर
हर पल बदलता ज़िन्दगी के मायने

सोचिए है दिन बिताता
या है जीता आदमी

उलझने शाहा बहुत है देखिये
छोड़िये है ज़िन्दगी में रंज कितने

मुस्कुराइये सोच कर सोचे बिना
मुस्कुराता है, मगर है दर्द में हर आदमी

…… विनीता शाहा

Loading...