“ कश्मीर क्यों तरस रहा ? “

“ कश्मीर क्यों तरस रहा ? “
कार से एक बार कश्मीर की यात्रा की थी मीनू ने
आतंक का नाम सुना हुआ था तो थोड़ा डर गई थी
पुलवामा आते ही हल्का सा डर लगने लग गया मुझे
शहीदों की शहादत की याद ताजा आज हो गई थी
चलते चलते पटनिटॉप होते हुई कश्मीर तक पहुचें
लाल चौक तक पहुंचते पहुंचते आधी रात हो गई थी
चारों तरफ़ सन्नाटा सा पसरा हुआ नजर आ रहा मुझे
ऐसा लग रहा जैसे बस्ती और सड़क सब सो चुकी थी
दो जन हमारी गाड़ी रुकवाकर बोले होटल का रास्ता बताए क्या
सच कह रही हूँ डर के मारे हालत पतली हो गई थी
खाना खाकर सोने की तैयारी हुई थी डल झील पर
खिड़की बजी अचानक से तो जान ही निकल गई थी
अजीब सा सन्नाटा छाया और अलग सी आवाजों से
उस पूरी रात मीनू भय के मारे सो ही नहीं सकी थी
अगली सुबह से घूमना शुरू कर दिया था हमने तो
शिकारा बोटिंग के बाद एकदम से साइरन बजी थी
आनन फ़ानन में हम झटपट बैठ गए अपनी गाड़ी में
कुछ ही क्षण में वहाँ पर भारतीय फ़ौज तनी खड़ी थी
गुलमर्ग पहुंचते समय सड़कों पर अलग नजारा दिखा
लोग तो खड़े थे लेकिन उनकी हरकत हड़बड़ा रही थी
शाम होते होते अलग ही मंजर दिखने लग जाता वहाँ
महिलाएं लड़किया घर के अंदर पैक होकर रह रही थी
गुलमर्ग सोनमर्ग पहलगाम का नजारा थोड़ा अलग था
क्योंकि वहाँ पर तो शैलानियों की भीड़ उमड़ रही थी
गाँवो में से गुजरे तो लोगों की परेशानियां भी दिख गयी
हर नजर इधर उधर घूरकर पता नहीं क्या ढूँढ रही थी
सारे रास्तों पर फौजी बने पहरेदार खड़े हुए थे रक्षा में
सुन रहा मीनू को घाटी भी सुरक्षा की पुकार रही थी
इससे ज़्यादा घुटन और क्या होगी कश्मीर के लिए
घरों की छतों पर भी आदमी नहीं आर्मी ही खड़ी थी
आतंकी कहाँ से घुस जाएँ किसी को भी नहीं मालूम
पहलगाम में तो अभी गोलियों की दनादन सुनी थी
मीनू को सुना रहा है दास्ताँ तरसता हुआ वो कश्मीर
हम भी चैन से सो पाएं क्या कभी कोई ऐसी घड़ी थी ?