*संस्मरण*
#यादों_का_झरोखा
■ एक हुआ करती थी खटिया
★ जो देती थी आराम और आजीविका।
★ दिमाग़ नहीं दिल से पढ़िएगा बस
【प्रणय प्रभात】
यह बात 1970 के दशक की है। जब बेड-फेड जैसे आइटम केवल दहेज़ में आया करते थे या ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद हुआ करते थे। गांव और कस्बों से शहर तक सबके आराम व आवभगत की ज़िम्मेदार होती थी “खाट।” जिसे आम बोली में “खटिया” कहा जाता था। बहुधा बांस या यदा कदा लकड़ी की पाटियों से बनी खाट को पढ़े-लिखे लोग “चारपाई” कहा करते थे। यह मूंझ की खुरदुरी सी रस्सी से बुनी जाती थी। इस रस्सी को “बान” भी कहा जाता था।
खाट सामान्यतः खाती (बढ़ई) की दुकान पर बनती और मिलती थी। कभी-कभी इसे कंधे या सिर पर रख कर बेचने वाले गली-मोहल्ले में भी आ जाते थे। ज़ोरदार आवाज़ लगाते हुए। जिसका दाम आपसी बातचीत मतलब मोल भाव से तय हो जाता था। जिसके पीछे “बारगेनिंग” जैसी धूर्तता नहीं, चार पैसों की बचत की इच्छा के करुण भाव होते थे। इसे बुनने वाले कारीगर अलग हुआ करते थे। जो अलग-अलग डिज़ाइन में मेहनत से ख़ाली ढांचे में खाट की बुनाई करते थे। करीब चार छह तरह से। पैरों की तरफ एक तिहाई से कुछ कम हिस्से में सूती रस्सी का उपयोग होता था। जो ढीली होने वाली खाट को फिर से कसने का काम करती थी। ठीक वैसे ही, जैसे ढोलक के चमड़े को रस्सी कसती है। अलग-अलग आकार वाली खाट शयन के बाद प्रायः खड़ी कर के रख दी जाती थी। जिसकी वजह घरों में जगह की कमी भी होती थी।
कम ऊंचाई वाली खाट अधिक ऊंचाई वाली खाट के नीचे भी रख दी जाती थी। खाट को उसके आकार या वज़न के मुताबिक इधर से उधर करना आसान होता था। गर्मियों में खाट पर पसर कर पीठ की खुजली मिटाना एक अलग ही आनंद देता था। तब गर्मी में “डर्मी कूल” कहां होता था, घमौरियों से लड़ने के लिए। बारिश के दिनों में खड़ी खाट के ढांचे में भौतिक परिवर्तन (बांकपन) हो जाना आम बात था। जिसे स्थानीय बोली में “कान आना” कहते थे। इसे खत्म करने के लिए खाट को बिछाकर ऊपर उठे हिस्से पर दवाब दिया जाता था। जो मज़ेदार खेल जैसा होता था। वर्षाकाल के दौरान सीलन की वजह से खाट के पायों में “खटमल” पैदा हो जाते थे। इस समस्या के बाद खटिया को सड़क पर लाकर खटमलों को बाहर निकाला जाता था। जिन्हें बिना किसी रहम के कुचल कर मौत के घाट उतारना सुकून देता था। खटमल को मारते ही पता चल जाता था कि उसने हमारा कितना खून चूसा। इस कवायद का सीज़न क्वार का महीना होता था। जिसे पढ़े लिखे लोग अश्विन कहने लगे हैं। मतलब सितम्बर या उसमें थोड़े से अक्टूबर का तड़का।
सन 1980 के दशक में मूंझ (बान) की जगह पहले सूत और फिर नायलॉन की निवाड़ ने ले ली। इससे खाट को खुद बुनना आसान हो गया। लकड़ी की जगह लोहे के गोल या चौकोर पाइप से खाट का ढांचा बनने लगा। यह बाद में सहूलियत के लिए फोल्डिंग भी हो गया। लगभग एक दशक बाद खाट गांवों तक ही सिमट कर रह गई। जो बाद में राजमार्गों के ढाबों की ख़ास पहचान बनी। पारंपरिक सूबों के पिछड़े हुए गांवों में इनका वजूद आज भी किसी हद तक सलामत है। इसे बनाने और बुनने वाले हुनरमंद कलाकार अब गिने-चुने ही बचे होंगे। जो आजीविका के लिए अब दूसरे छोटे-मोटे कामों पर आश्रित हैं। जिनमें निर्माण कार्य, रंग-रोगन, हम्माली और बेंड-बाजे जैसे काम शामिल हैं। कस्बाई और शहरी मानसिकता में अब खाट को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है। यह अलग बात है कि राजमार्ग के ढाबों पर यही खाट अब भी थकान मिटाने के काम आ रही हैं। आकार प्रकार व बुनाई में बदलाव के साथ। जिनके बीच लकड़ी के पाट पर परोसा जाने वाला भोजन करना आधुनिक समाज के अमीरज़ादों के लिए भी शान का सबब है। ट्रक, बस के चालकों या आम वर्ग के यात्रियों की तरह।
निम्न व मध्यम से लेकर उच्च वर्ग तक शयन के काम आने वाली खटिया बुनाई में आने वाली ढील के बाद जो मज़ा देती थी, वो अब क़ीमती बेड, दीवान और नरम गद्दों पर भी मयस्सर नहीं। इस सच को वो सब सहज स्वीकार कर सकते हैं, जिन्होंने झकोला (ढीली) हो चुकी खाट, खटिया और खटोले पर चैन से सोने का लुत्फ पूरी शान से लिया है। अनगिनत रातों में, एक उम्र तक। हम और हमारी समकालीन पीढ़ी के जीव खुशनसीब हैं, जिन्होंने इन सभी पलों को पूरी मस्ती और ज़िंदादिली के साथ ठाठ व आनंद से जिया। काश, वही दिन फिर से लौट कर आते और बेचारी खाट की खटिया खड़ी न होती। दुष्ट समय के बदलाव के साथ। फ़िलहाल, नई नस्ल इसे पढ़ कर पुरानी जीवन शैली के उस दौर की कल्पना तो कर ही सकती है, जो केवल आनंदप्रद ही नहीं, आजीविकादायक भी थी। सह अस्तित्व और पारस्परिक निर्भरता की सुपोषक, जिसे आज समय की दीमक चाट गई है। निरीह खाट, खटिया और खटोले के साथ। बीते दौर के कुछ और दिलचस्प संस्मरण, फिर कभी…।।
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★संपादक★
न्यूज़ & व्यूज़
(मध्यप्रदेश)