ग़ज़ल
बह्र-22 22 22 22, 22 22 22 2
काफ़िया- आना….
रदीफ़- किसको अच्छा लगता है …..*
जीवन भर यूँ धोखे खाना किसको अच्छा लगता है।
पल दो पल का ही याराना किसको अच्छा लगता है।।
कोई अपना दुनियां छोड़े मुश्किल होता गम सहना,
आँखों से आँसू छलकाना किसको अच्छा लगता है।
चुप रहने वालों को अक्सर बुज़दिल कहती है दुनियां,
बातें दो की चार सुनाना किसको अच्छा लगता है।
डर बैठा है मन में मेरे कुछ अपनों को खोने का,
वरना यूँ दिल में घबराना किसको अच्छा लगता है
अच्छे कामों को कम आंके होते ऐसे भी बन्दे,
तारीफें खुद की करवाना किसको अच्छा लगता है।
बीती यादों के गहरे साये तड़पाते हैं मन को ,
अंदर-अंदर घुटते रहना किसको अच्छा लगता है।
लफ़्ज़ों की हद को तोड़े बातों की मर्यादा भूले,
उनकी ‘सीमा’ को बतलाना किसको अच्छा लगता है।
सीमा शर्मा