बदनामी का दाग़ सिर्फ़ मर्दों को

व्यंग…
समाज ने नज़रिया तय करने के लिए दो चश्मे बनवाए हैं। एक गुलाबी फ्रेम वाला, दूसरा लोहे का भारी फ्रेम। एक के आँसू “संवेदनशीलता” कहलाते हैं, दूसरे के आँसू “ड्रामा”। औरत गरजती है तो साहसी, मर्द गरजे तो असभ्य। गलती औरत करे तो “मजबूरी”, मर्द करे तो “बदतमीज़ी”। यही सोच चुपचाप हमारी कहावतों में भी घुस गई है—बिना दस्तक, बिना सहमति। अब वक़्त आ गया है कि इन कहावतों की सामाजिक कोर्ट में दोबारा सुनवाई हो। इस बार गवाह के तौर पर पेश हैं, हास्य और व्यंग्य।
“अंगूर खट्टे हैं।”
बचपन से सुनते आए हैं। मगर कभी पूछा किसी ने कि लंगूरी को भी अंगूर क्यों नहीं मिले? बेचारा लंगूर सोशल मीडिया की वो पोस्ट बन गया है, जो वायरल तो होती है, पर असलियत से कोई वास्ता नहीं रखती।
“ऊँट के मुँह में ज़ीरा।”
और ऊँटनी? क्या करवाचौथ पर उपवास कर रही थी? कहावत गढ़ने वालों ने शायद उसे वहीं भेज दिया होगा, मौन व्रत के साथ।
“बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद…”
और बंदरिया? क्या उसे सिर्फ अदरक छीलने की डिग्री थमा दी गई थी? स्वाद तो वही जानता है जिसने ज़ुबान से महसूस किया हो, लेकिन टेस्ट बड्स पर भी जेंडर अप्लाई हो चुका है।
“हाथी के दाँत दिखाने के और, खाने के और।”
हथिनी के दाँत क्यों नहीं गिने गए? या फिर उसे सिर्फ बच्चों की किताबों में “प्यारी-प्यारी मम्मी” बना दिया गया?
“मगरमच्छ के घड़ियाली आँसू।”
मगरमच्छनी अगर रोती है तो “बेचारी कितनी भावुक है!” मर्द रोए तो ‘ओवरएक्टिंग’, औरत रोए तो ‘इमोशनल आइकन’। वाह री संवेदना की लैंगिकता!
“कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं होती।”
कुतिया की पूँछ क्या सुबह-सुबह स्ट्रेटनर से सेट की जाती है? फिर भी इस कहावत की लाठी हर बार कुत्ते पर ही टूटती है।
“आ बैल मुझे मार।”
गाय ने क्या कभी किसी को नहीं मारा? सीधेपन की बात करें तो बैल भी बड़े सज्जन निकले हैं। फिर भी बदनाम वही हुआ—क्योंकि गाय दूध देती है और बैल बस नज़रों में खटकता है।
“झूठ बोले कौआ काटे।”
कौवी क्या संविधान जानती थी जो काटने से इंकार कर गई? या उसे “महिला कौआ सुरक्षा अधिनियम” के तहत छूट मिल गई?
“घोड़े बेच कर सोना।”
घोड़ी बेचने के बाद भी चैन नहीं मिलता, क्योंकि उसे तो कपड़े भी तह करने हैं, बच्चों को स्कूल भी छोड़ना है, और लौटते में सब्ज़ी भी लानी है।
“घर का जोगी जोगड़ा।”
और जोगिन? वो शायद इंस्टाग्राम पर योगा रील्स बना रही है ताकि घरवाले उसे थोड़ी गंभीरता से लें।
“मर्द के कदम और ऊँट की चाल कभी नहीं समझ आती।”
तो फिर GPS सिर्फ मर्दों के लिए ही क्यों बंद रहता है? जब समाज ने ही उसके हर मोड़ पर जजमेंट बोर्ड टांगे हों, तो चाल कैसे सीधी हो?
“तेली का तेल और चोर की नैतिकता।”
तेलिन का क्या? उसका तेल सिर्फ बालों और चेहरे के लिए होता है। नैतिकता की बोतलें तो हमेशा मर्द के हिस्से आईं और जब छलकती हैं, तो दाग भी उसी के माथे चिपकते हैं।
ये कहावतें सिर्फ भाषाई तुकबंदी नहीं हैं। ये समाज की मानसिकता की माइक्रोचिप हैं, जिनमें मर्द हर मज़ाक का पात्र है। औरत या तो देवी है या दयनीय। बीच की कोई जगह नहीं।
अब वक़्त है पुनर्विचार का। इन कहावतों की दोबारा सुनवाई हो, नए गवाह पेश हों, फैसले फिर से लिखे जाएँ… क्योंकि अब मर्द भी आइने के सामने खड़ा होकर कहता है “नाम भले न हो, पर बदनाम तो हूँ… और इस बार, हँसी में लिपटी सच्चाई भी मेरी तरफ़ है।”