संग – संग

कौन है अपना कौन पराया
हार जीत की अलग है माया
झूठ का पड़ला भारी है अब
सच को लेकिन झुका न पाया
भीतर कुछ है, बाहर कुछ है
दुनिया ने उसे गले लगाया
जो मन में,आंखों से पढ़ लो
ऐसों का उपहास उड़ाया
धूप में नंगे पांव चले है
संघर्षों ने जिन्हें ख़ूब नचाया
उनसे कहते तुम क्या जानो
तप तप कर सोना बन पाया
तुम भी ठहरों,हम भी ठहरें
पेड़ों ने कब बांटी छाया
बहती नदिया,निर्मल जल है
प्रकृति ने सबको पाठ पढ़ाया।