सामाजिक दर्द
सामाजिक दर्द
घुट-घुट कर जीवन जिया, कंगाली में हाल।
गए जगत जब छोड़कर, बच्चे मालामाल।।
धन दौलत व्यापार की, देखो कैसी आस।
निकले प्राण शरीर से, धरे पासबुक पास।।
कहां-कहां खाते रहे, और कितने मकान।
लगी औलाद खोजने, धन दौलत सामान।।
कुछ अपने भी पास रख, आगे की फिर सोच।
बार-बार होती नहीं , ठीक पैर की मोच।।
है सांपों की यह धरा, चींटी भी शैतान।
चुगली करती मोरनी, पंछी तो अनजान।।
हंसी-खुशी जीवन जियो,यही जगत का सार।
इतने पुण्य कर्म कहां, लेवें फिर अवतार।।
सूर्य कहे संसार से, जीवन का यह मोल।
आगे अपनी सोच है, धरती पूरी गोल।।
सूर्यकांत