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29 Apr 2025 · 1 min read

सामाजिक दर्द

सामाजिक दर्द

घुट-घुट कर जीवन जिया, कंगाली में हाल।
गए जगत जब छोड़कर, बच्चे मालामाल।।

धन दौलत व्यापार की, देखो कैसी आस।
निकले प्राण शरीर से, धरे पासबुक पास।।

कहां-कहां खाते रहे, और कितने मकान।
लगी औलाद खोजने, धन दौलत सामान।।

कुछ अपने भी पास रख, आगे की फिर सोच।
बार-बार होती नहीं , ठीक पैर की मोच।।

है सांपों की यह धरा, चींटी भी शैतान।
चुगली करती मोरनी, पंछी तो अनजान।।

हंसी-खुशी जीवन जियो,यही जगत का सार।
इतने पुण्य कर्म कहां, लेवें फिर अवतार।।

सूर्य कहे संसार से, जीवन का यह मोल।
आगे अपनी सोच है, धरती पूरी गोल।।

सूर्यकांत

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