पहलगाम: सन्नाटा भी चीख पड़ा

22 अप्रैल 2025, बैसरन घाटी, पहलगाम (कश्मीर)। कभी हसीन यह वादी फूलों की मुस्कान और झरनों की हँसी से पहचानी जाती थी। यहाँ हवा इबादत करती थी और पहाड़ों की ख़ामोशी में अमन की सरगोशियाँ होती थीं। अब वही वादी बारूद की गंध से भरी है और फ़ज़ा में लहू के दाग़ हैं। चार हथियारबंद साए आए और चंद पलों में 28 ज़िंदगियाँ ज़मीन पर बिखर गईं। इनमें वो आँखें थीं जो अभी सपने देखना सीख रही थीं। वो उँगलियाँ थीं जो अभी कलम पकड़ना चाहती थीं, वो गोदें थीं जो दुआओं से भरी थीं। अब सब कुछ अधूरा है…कुछ हमेशा के लिए।
यह कोई सामान्य आतंकी हमला नहीं था। यह एक चेतावनी थी…हमारे समाज को, हमारे मौन को, हमारी संवेदनहीनता को। यह हमला केवल शरीरों पर नहीं था, यह इंसानियत, हमारी सामूहिक चेतना पर कुठाराघात था। घटनाओं की प्रतिक्रियाएँ अब एक औपचारिकता बन चुकी हैं। प्रधानमंत्री की निंदा, गृहमंत्री की समीक्षा, सुरक्षा बलों की सख़्ती। नतीजा? वही पुराने घिसे-पिटे, रिवायती शब्द, कुछ मोमबत्तियाँ, दो मिनट का मौन और फिर चुप्पी। ऐसी चुप्पी जो खून से भी नहीं टूटती।
“आतंक का कोई धर्म नहीं होता…।” यह वाक्य अब इतना घिस चुका है। उसमें न प्रभाव बचा है, न प्रश्न, लेकिन क्या हमने कभी खुद से पूछा कि यह आतंक केवल सरहदों से नहीं आता। यह हमारे अंदर भी पलता है, हमारी नफ़रतों में, हमारे पूर्वाग्रहों में और उस मौन में, जो हर अन्याय को स्वीकार करता है। बैसरन घाटी की इस त्रासदी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि आतंक की असल ताक़त उसकी हिंसा में नहीं, हमारी चुप्पी में है।
मरने वाले सिर्फ़ आँकड़े नहीं होते। वे ख़ाली गोदें हैं, टूटी चूड़ियाँ होती हैं, बिन पढ़ी किताबें होती हैं, वे अधूरे सपने होते हैं जो अब लकड़ी के ताबूत में बंद हैं। समाज जब संवेदनहीन हो जाता है, तब सबसे पहले उसकी आत्मा मरती है। हम जो खुद को “जागरूक नागरिक” कहते हैं—क्या हमने ऐसी चेतावनी को गंभीरता से लिया? मोमबत्तियाँ जलाना आसान है, लेकिन उन कारणों पर भी रोशनी डालना ज़्यादा ज़रूरी है जो बार-बार इन त्रासदियों को जन्म देते हैं। अब वक़्त आ गया है कि हम सिर्फ़ दुखी न हों, बल्कि सजग बनें। सवाल करें और हर स्तर पर एकजुट हों। अगर इस बार भी हम नहीं जागे तो अगली चीख़ हमारे ही भीतर की होगी…शायद फिर कोई सुनने वाला भी न बचे।