कलयुग की चाल और संस्कारों की पुकार

कलयुग की चाल और संस्कारों की पुकार
(सौहार्द शिरोमणि संत डॉ. सौरभ – प्रमुख, धरा धाम विश्व सद्भाव पीठ)
कुटुंब बिखरते देखे हमने, रिश्तों का रस खोता है,
हर मन भीतर अब एकाकी, चुपचाप बहुत रोता है।
प्रेम हुआ है मोल बताकर, बंधन सारे टूटे हैं,
संस्कारों की धरा हमारी, क्यों इतनी अब रूठे हैं?
मंदिर छूटा, हवन भुलाया, केक कटा हर जश्न पे,
डैड-मॉम बनकर रह गए माता-पिता भी प्रश्न पे।
प्रणाम गया, बाय-बाय आया, आरती की लाज गई,
श्लोक छूटकर, “सॉरी-थैंक्यू” की भाषा में साज गई।
नींदें छोटी, रातें लंबी, मन व्यस्त मशीनों में,
माथे की वो बिंदिया खोई, पड़ी कहीं रंगीनों में।
तांबे-पीतल के बर्तन भी अब स्टील में गुम हो गए,
घर के दीपक होटल पहुँचे, सपने जैसे सो गए।
बालक को अब संस्कारों से दूर बहुत ले आए हम,
हनीमून की उड़ती छाया में कुलदेव को भुलाए हम।
“बेस्ट ऑफ लक” कह कर निकले, मंदिर की चौखट भूली,
माथे की राखी कम हुई है, दिल की ममता भी झूली।
जब अब बच्चा जुबान लड़ाता, माँ-बाप को समझे बोझ,
तब क्यों मन में पीड़ा लेकर, ढूँढ रहे हो कोई खोज?
जिसने जड़ में ज़हर मिलाया, वह फल कैसे मीठा हो?
संस्कृति को तजकर फिर क्यों रोते – हमसे क्या गलती हो?
अंग्रेज़ी भाषा ठीक सही है, पर संस्कृति तो अपनी है,
संवेदना, श्रद्धा, मर्यादा – इस धरती की धरणी है।
अब भी समय है, जागो बंधु! दीप जलाओ आशा का,
फिर से राम, कृष्ण, शिव पूजा लौटे रंग प्रकाश का।
बच्चे को फिर गायत्री दो, मातृ-पितृ वंदन सिखलाओ,
केक के संग कण-कण में ईश – यह भाव हृदय में लाओ।
होटल छोड़ो, घर में बैठो, मंगल गीत सुनाओ,
संस्कार की बीज बोकर ही भारत को फिर बचाओ।
संस्कारों की जोत जले फिर, हर घर बने तीर्थ महान,
फिर से बहे प्रेम की सरिता, मिट जाए कलियुग की जान।
सौहार्द शिरोमणि संत सौरभ हों अग्रदूत महान बने,
धरा धाम से फैले फिर से, सद्भाव-प्रेम के गान बने।
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