प्रकृति और मनुष्य

प्रकृति थी माँ जैसी, निस्वार्थ दी सब कुछ,
हरियाली, नदियाँ, आकाश का खुला रुख।
फूलों की हँसी, चाँदनी की चुप बातें,
हर साँस में बसी थीं उसकी सौगातें।
पहाड़ों की गोदी में झूला झुलाता था,
नदी की लहरों से गीत सुनाता था।
बादल भी बरसते थे सुख-दुख समझकर,
पेड़ भी लगते थे जैसे साया बनकर।
पर मनुष्य ने क्या किया, किस ओर चला?
लोभ में अंधा हुआ, सब कुछ जला चला।
पेड़ कटे, नदियाँ सूखी, मिट्टी भी रूठी,
प्रकृति की ममता पर चल गई छूटी।
अब गर्मी में तपती हैं साँसें यहाँ,
आँधियाँ कहती हैं – “तूने क्या किया?”
बारिश भी डरती है अब गिरने से,
धरती भी कांपती है फिर बिखरने से।
फिर भी प्रकृति चुप है, न गुस्सा, न घाव,
अब भी वो देती है जीवन की छांव।
बस इंसान को समझना होगा अब,
प्रकृति को बाँधो मत, दो उसको सब।
चलो फिर से बोएँ बीज प्रेम के,
संवेदनाओं से सींचें हर एक पेड़ के।
प्रकृति और मनुष्य का हो फिर मिलन,
यही हो धरती पर सच्चा जीवन।
डॉ. मुल्ला आदम अली
तिरुपति, आंध्र प्रदेश