तोड़ दो हताशा से नाता
इतने हताश होते हो क्यों ?
जग में रह कर रोते हो क्यों?
सृष्टि तो अविनाशी है,
सकल निरंतर बढ़ती है यूँही।
निस दिन होता,रात और दिन,
नवल सवेरा शुभ प्रभात है यूँ,
चांदनी सी सुंदर रात है यूँ,
तू फिर क्यों उदास हो यूं ही ।
खोज करो तुम जग में रहकर,
धरा में पाओगे जो चाहोगे,
जीवन जीने यदि स्वरूप अपनाओगे,
मन को गिरा को क्यों बैठे हो।
तुम ही हलचल हो,
प्राकृति के सुत सुता,
वन नदियां समुद्र और पहाड़,
देंगी तुम्हे हर आनंद और उल्लास।
धरा से चल कर गगन तक तू उड़,
पंछियों की भांति सफर में तू चल,
ची ची चू चू कू कू की संगीत तू सुन,
ठहरने नहीं देंगे मेघ बारिश के ये धुन ।
चलाए मान ये जग सारा है,
जन्म से मरण का ये पथ प्यार है,
जीवन तुम्हारा तुमसे नहीं न्यारा है,
बस हताशा से तुमने इसे मारा है।
मूक जीव जंतु भी देखो,
बेघर से रहते और जीते,
प्रकृति के संग जीते और मरते,
इनसे भी प्रेरणा लेकर तुम सीखो।
मानव हो तुम ! खोजी दाता,
हर चुनौतियों से है टकराता,
जो खोजे वो ही है पाता,
तोड़ दो तुम अब हताशा से नाता।
रचनाकार
बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर।