*मनः संवाद—-*

मनः संवाद—-
21/04/2025
मन दण्डक — नव प्रस्तारित मात्रिक (38 मात्रा)
यति– (14,13,11) पदांत– Sl
घूम रहा लंगूर बना, इधर-उधर संसार में, बिना निरापद धर्म।
बुद्ध पुरुष से मेल नहीं, मनमानी करता सदा, समझ न पाया मर्म।।
कभी किसी की बात करे, नास्तिकता सारी भरी, बनता है बेशर्म।
दैहिक आसक्ति अधिक है, विषय भोगवादी महा, नहीं सुधरते कर्म।।
बहुत नीच है रे मन तू, कहना ही कब मानता, मनमानी उस्ताद।
इसी चाल ने है अब तक, इस भोले इंसान को, किया खूब बरबाद।।
तुझे मित्र मैं मान रहा, तूने की बस दुश्मनी, नहीं सुने फरियाद।
पड़े पीठ कोड़े मेरे, प्रेरित था तूने किया, दिया स्वयं को दाद।।
लगन धरायें अक्ती के, मुँधियरहा भाँवर लगन, तोर मोर हे बिहाव।
सगा सियनहा ले आहूँ, गाँव बरतिया नाचही, रहिबे तहीं निघाव।।
दूल्हा बनके मैं आहूँ, आघू रहही ढेड़हा, करे जमों परिघाव।
नाचत आहीं गाँव जिहाँ, फिल्मी गाना बाजही, करे फटक्का ताव।।
— डॉ. रामनाथ साहू “ननकी”
संस्थापक, छंदाचार्य, (बिलासा छंद महालय, छत्तीसगढ़)
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