कहाॅं हो
मैं तुझे ढुढती थी कुंज और वन में
तू स्मिता बिखेरती थी हवा के कण कण में,
तू सदा रहती हो साथ मेरे तन में,
पर हुआ नहीं विश्वास चंचल मन में,
जब दर्द-पीड़ असह्य हुआ चिर- जीवन में,
तू नेह औषध संचार किया जलाश्रित नयन में,
जब अहम् भाव विक्राल हुआ मेरे अंतर्मन में,
तू ही शीत श्रृंगार विह्वल विभूषित दर्पण में ,
हे प्रकृति पालिका देवी प्रत्यक्ष थी तू जन-जन में,
मैं आश दीप ले प्रतीक्षारत रही कंक्रीट के भवन में।
उमा झा 🙏🏻🙏🏻