*ठहरों ना ज़रा*
पहले
सिर्फ़ ख़त बोलते थे,
अब तो
हर चीज़ —
पाज़ेब की झनक,
तस्वीर की ख़ामोशी —
कुछ न कुछ कहती है।
तेरे बोल — जैसे मिश्री घुली,
सोंधी हँसी, मंद मुस्कान —
तेरे लिए
चाहतों की खिड़की खुल जाती है।
सरसराती इन हवाओं में
मेरे सिर की धानी चुनरी
उड़कर
तेरे रास्ते में बिछ जाती है।
ठहरो ना ज़रा,
ये मेरे झुमके
तुम्हें देखकर झूमने लगे हैं।
और ये चूड़ियाँ —
खनखनाकर
बस तुम्हारा नाम पुकारती हैं।
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल