गज़ल

तुम्हारा इश्क मुझसे इस कदर तस्दीक हो पाया।
रखा है दूर मुझको ही कहांँ नजदीक हो पाया।।
रफू तुरुपाइयांँ बखिया लगे मरहम मुसलसल भी,
मगर जो जख्म तूने दे दिया कब ठीक हो पाया।
भले ही मिल गये तमगे बड़े असबाब दुनिया के,
मगर जानिब खुदा के तू कहाँ सिद्दीक हो पाया।
निजामत मैकदे की कब मुनासिब थी मुकद्दर में,
नहीं तन्हाइयों से मैं कभी तफरीक हो पाया।
बिके हर रोज किस्तों में भरे बाजार में आकर,
मिले जब हस्र में आकर गमे तारीक़ हो पाया।।
लिये गुल हाथ में ताजे़ छिपा खंजर खलीसे में,
बड़ा नादान था तू शेष कब बारीक हो पाया।।
शेषमणि शर्मा ‘शेष’