एक सांझ संदली, गाँव की पगडंडियों तक खींच लाती है,

एक सांझ संदली, गाँव की पगडंडियों तक खींच लाती है,
अलविदा कहने को थी तैयार, कि मासूमियत टकराती है।
मेरे आने का सबब पूछती नहीं, बस कुछ पल संग बिताती है,
अपने सपनों की उड़ानें, मेरी आँखों को दिखाती है।
उसकी निर्भीक स्वच्छंदता, मुझे उस ‘मैं’ से मिलाती है,
कभी जो वयस्कता के पिंजर में ना थी, वो अल्हड़ता याद दिलाती है।
बेसबब बातों की वो खनक, खामोशी में मेरे सेंध लगाती है,
जो ज़ब्त किये बैठी थी, उस उफनती नदी को बहाती है।
सादगी भरी वो मुस्कान, मेरे मन को कुछ इतना लुभाती है,
कि ग़मगीन आँखें भी, उसकी चमक संग खिलखिलाती है।
खुशी की ये छलकती गागर, जो इन मुंडेरों को भींगाती है,
मेरे शहर की भीड़ में, क्यों अपना अस्तित्व गुमाती है।
वो दौड़ती नजरें मुझे, अपना झोपड़ दिखाती है,
कभी आओ मेरी दहलीज पर, कह कर बुलाती है।
समय से बंधी सुईयां, मेरे क़दमों को बेबस बनाती हैं,
इस सांझ से चुराकर मुझे, फिर से पिंजर को ले जाती है।