उपन्यास “बाप का डाटना” ( एक सबक )

उपन्यास “बाप का डाटना” का एक प्रारंभिक अध्याय। यह कहानी एक मध्यवर्गीय भारतीय परिवार की है, जहाँ एक पिता की डांट समय के साथ एक गहरी सीख में बदल जाती है।
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**उपन्यास: बाप का डांटना**
अध्याय 1: आवाज़ जो चुपचाप गूंजती रही
रात के दस बज चुके थे। मुहल्ले के ज़्यादातर घरों में बत्तियाँ बुझ चुकी थीं, लेकिन मिश्रा जी का कमरा अब भी जल रहा था। उनकी आवाज़, जो पूरे दिन संयमित और हल्की रहती थी, अब ऊँची हो चुकी थी।
“राहुल! ये क्या तरीका है? बारहवीं के बोर्ड हैं सिर पर और तुम मोबाइल में लगे हो? जब देखो तब वाट्सएप, इंस्टा, यूट्यूब! तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता!”
राहुल चुपचाप खड़ा था, आंखें नीचे और हाथ काँपते हुए। उसके कानों में शब्द चुभ रहे थे—लेकिन उसकी आँखें पिता के चेहरे में छुपे डर को भी पढ़ रही थीं। वो डर जो किसी और को न दिखे—कि कहीं बेटा भटक न जाए, कहीं हार न मान जाए।
माँ ने बीच में आने की कोशिश की, लेकिन मिश्रा जी ने हाथ उठाकर रोक दिया।
“नहीं, सुमन। ये समझना ज़रूरी है इसे। मैं दुश्मन नहीं हूँ इसका। लेकिन बाप की डांट अगर आज नहीं लगी, तो कल दुनिया इसे तोड़ देगी।”
उस रात राहुल ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप अपने कमरे में गया और तकिए में मुँह छुपाकर सो गया। लेकिन पिता की आवाज़—जो डांट में थी—कहीं अंदर गूंजती रही।
वो सिर्फ़ डांट नहीं थी—वो डर, प्यार, उम्मीद और मजबूरी की एक मिली-जुली भाषा थी—जो सिर्फ़ वही समझ सकता है जो कभी डांटा गया हो।