अम्बर जब जब रोया होगा,रातें तब चिल्लाई होंगी…

अम्बर जब जब रोया होगा,रातें तब चिल्लाई होंगी…
आशाएं भंगूर हो हो कर,गीत त्रासदी गाई होंगी।
अंधेरों के सभागार में, सिर्फ़ अकेले हम जलते हैं।
अग्नि शैल पर पग धर धर कर,देखो कैसे हम चलते हैं।
शब्द शब्द के संयोजन से,गीत गढ़े हैं छंद सजे हैं।
किंतु भाव के अंगराई में हृदय रोग केवल बढ़ते हैं।
अपने बचपन में जब डूबा,साथ तुम्हारा पाकर हम तो
एक शब्द की निष्ठुर गरिमा को गढ़कर अंतश मलते हैं।
सपने ध्वस्त हुए समतल हो,आशा अंकुर नष्ट हुए हैं
व्यापक व्योम भरा बादल से,विचलित सूर्य क्लिष्ट हुए हैं।
उल्लू की छाया को पाकर, मूढ़ कस्तूरी तब तक खोजो
जब तक यह आभास हुए न, मूढ़ मूढ़ता को छलते हैं।
विमुख हुआ उत्कर्ष पंथ से,पंकज को जल ही नीरस है।
हैं अनगिनत सौम्य सुधाकर,जिनको पत्थर में भी रस है।
किसलय कुलीन कांतिकर मोहक गंध निशा तक को देते हैं।
अगम अभीष्ट अनाकर उपमा,शब्द सरित में ही पलते हैं।
©® दीपक झा रुद्रा