कांचा गचीबोवली: हरियाली के हक़ की पुकार

कांचा गचीबोवली: हरियाली के हक़ की पुकार
© अरशद रसूल
हैदराबाद, जिसे कभी झीलों और बाग-बगिचों का शहर कहा जाता था, आज तेज़ी से बदलते शहरी परिदृश्य का जीवंत उदाहरण बन गया है। शहर के पश्चिमी छोर पर स्थित कांचा गचीबोवली लगभग 400 एकड़ का एक हरा-भरा क्षेत्र अब विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच खिंचाव का प्रतीक बन चुका है।
तेलंगाना इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन (TGIIC) ने जब इस क्षेत्र को शहरी विकास के लिए चिन्हित कर उसकी नीलामी की घोषणा की तो यह केवल एक प्रशासनिक फैसला नहीं रहा।
सरकारी पक्ष का तर्क था कि यह ज़मीन राज्य की है और इसे एक नए आईटी हब, कनेक्टिविटी नेटवर्क और अधोसंरचना के विकास के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। यह घोषणा जल्द ही एक तीव्र विरोध आंदोलन में बदल गई जो केवल राजनीतिक या सामाजिक नहीं, बल्कि वैचारिक भी था।
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जैवविविधता की पुकार
कांचा गचीबोवली केवल ज़मीन का एक टुकड़ा नहीं है, बल्कि एक समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र है। यहाँ 700 से अधिक पौधों की प्रजातियाँ, 200+ पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी और अन्य दुर्लभ जीव-जंतु पाए जाते हैं।
स्थानीय नागरिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, छात्रों और शिक्षकों ने मिलकर इस निर्णय के खिलाफ एकजुट विरोध दर्ज किया। उनकी स्पष्ट मांग थी कि इस क्षेत्र को कासु ब्रह्मानंद रेड्डी (KBR) नेशनल पार्क की तर्ज़ पर संरक्षित घोषित किया जाए।
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कानूनी हस्तक्षेप और केंद्र की नजर
मामले की गंभीरता को देखते हुए केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने इसे “अवैध भूमि समाशोधन” मानते हुए राज्य सरकार से स्पष्टीकरण मांगा। बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लिया और पेड़ों की कटाई पर तत्काल रोक लगाने का निर्देश दिया। साथ ही राज्य के मुख्य सचिव को आदेश दिया गया कि इस क्षेत्र में कोई भी नई गतिविधि न शुरू की जाए।
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नीतिगत बदलाव की शुरुआत
सार्वजनिक दबाव और न्यायिक हस्तक्षेप के बाद, राज्य सरकार ने नीलामी की योजना को रद्द कर दिया।
अब नया प्रस्ताव यह है कि पूरे क्षेत्र को एक 2000 एकड़ के इको-पार्क में तब्दील किया जाए, जिसमें हैदराबाद विश्वविद्यालय का कुछ हिस्सा भी शामिल हो सकता है।
योजना के अनुसार, विश्वविद्यालय को एक प्रस्तावित “फ्यूचर सिटी” में स्थानांतरित किया जाएगा और उसे 1000 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता दी जाएगी।
हालांकि, इस प्रस्ताव पर भी विवाद उठ खड़े हुए हैं- क्या यह स्थानांतरण शिक्षा, शोध और छात्रों की गुणवत्ता पर असर नहीं डालेगा?
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बचे हुए सवाल, भविष्य की दिशा
क्या यह इको-पार्क वास्तव में प्रकृति-संरक्षण की ओर एक स्थायी कदम होगा या सिर्फ एक अस्थायी “डैमेज कंट्रोल”?
विश्वविद्यालय के स्थानांतरण का दीर्घकालिक प्रभाव क्या होगा?
और सबसे अहम सवाल — क्या विकास और प्रकृति एक ही रास्ते पर चल सकते हैं?
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निष्कर्ष:
एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा सवाल: कांचा गचीबोवली की यह लड़ाई केवल ज़मीन के स्वामित्व की नहीं है-यह हमारे भविष्य की दिशा तय करने वाला संघर्ष है। एक ओर हैं आधुनिक विकास की ज़रूरतें, दूसरी ओर जीवनदायिनी हरियाली। सवाल यह है कि क्या हम स्मार्ट शहरों की दौड़ में अपने अस्तित्व की जड़ें तो नहीं काट रहे? अब समय आ गया है कि हम खुद से ईमानदारी से पूछें- हमें स्मार्ट सिटी चाहिए या एक सतत, सांस लेती सिटी?