दोहा सप्तक. . . . जगत्
दोहा सप्तक. . . . जगत्
साथ निभा कर चल दिए, जितने भी थे संग ।
द्रवित नैन से ईश के, देख रहे थे रंग ।।
आज सभी गमगीन थे, देख देह को मौन ।
प्राणों को जो ले गया, आखिर था वह कौन ।।
अंत समय संसार सब,ले लेता परिधान ।
जैसी आई फिर करे, वैसे ही प्रस्थान ।।
तोड़ सको तो तोड़ दो, झूठे जग के बंध ।
पीछे जाना छोड़ कर, नेक कर्म की गंध ।।
देह गमन के साथ जो, चलते हैं हमदर्द ।
उसके कर्मों की करें, व्याख्या जग के मर्द ।।
अपने मन में ले चला, जीवन की हर याद ।
पीछे केवल रह गए, कुछ उसके संवाद ।।
मौन सौम्य तस्वीर के, आगे झुकता माथ ।
क्षमा मांगते भूल की, सब जोड़कर हाथ ।
सुशील सरना / 9-4-25