*पूर्णिका* 02

पूर्णिका 02
भात के मया
(छत्तीसगढ़ी कविता)
भात ह घलो नइ साधारण आय,
गाँव के रसोई म ओह झन भारी आय।
दाई के हाँडी म उबथे धूप कस,
खुशबू ओकर – मन ला मोह लेथे ।
धान के बेरा, खेत के मया,
ओही म लुकाय हे भात के माया।
लोढ़ा म पीस के चटनी, चलनी ले छान के,
जिनगी गुजरथे, भात ला रानध के।
चना भाजी, टमाटर के जोझो,
भात संग खाबो त हो जाथे बोल।
करसा के पानी, मुरई के झोर,
भात ह बनाथे मन के ठौर।
रख ले भले मैगी आऊ पास्ता,
हमर भात ही हरे स्वाद के राजा।
भूख लगही, मन बड़ अकुलाही,
त भात ह कर देही सब ला “सुखदाई”।
✍️ जितेश भारती ।।