बात जब नैतिकता पर आई!
देश हुआ आजाद जब से,
लगा था घुन भ्रष्टाचार का तब से,
पर तब यह शिष्टाचार नही बना था,
जो भी करता पाया जाता,
जलील तब खूब किया भी जाता,
भ्रष्टाचार जैसे लगा रहता था,
लोकाचार भी डराया करता था!
धीरे धीरे यह बढ़ता गया,
जन मानस पिसता गया,
कदम ना इसके रोक पाए थे,
शामिल इसमें हो आए थे,
शासन से लेकर प्रशासन तक,
जडे जमा चुका था संस्थानों तक!
पर न्यायपालिका पर था भरोसा,
गाहे बगाहे जब कहीं कुछ होता,
जाकर अपनी व्यथा बताते,
देर सबेर जो कुछ मिल जाता,
लिए संतुष्टि वह खुश हो जाता!
पर बात जब नैतिकता पर आई,
गांधी जी की आत्मा तडप आई,
अब तक सह रहे थे वह जो भी,
जो हीं न्यायाधीश की चर्चा हो आई,
घर पर नोटों की गड्डियां भर आई ,
आत्मग्लानि से इतने अकुलाए,
नोटों पर अपनी तस्वीर से पछताए,
पश्चाताप से होकर व्यथित,
नोटों से छपि अपनी तस्वीरों को,
खुद ही आकर स्वयं आग लगा गये!
कह गये की अब बख्श दो मुझको,
छाप दो अब और किसी को,
करते रहे सियासत मुझ पर,
लगाते रहे तोह मत मुझ पर,
हर बात पर मुझको दोषी ठहराते,
गाली गलौज कर बतियाते,
जनता अभी भी क्या इतनी है भोलि,
कैसे बोल रही है वह भी ऐसी बोलि!
ठीक है तो अब मै चलता हूँ,
पूज लो उनको,
जो पसंद हो तुमको,
शरीर तो पहले ही छलनी कर गये थे,
पर मार रहे हो आत्मा को मेरी अब भी,
बात यह अब मुझे स्वीकार नहीं ,
करो वही जो मन मस्तिष्क में है भरि पडि !!