दोहा पंचक. . . . विविध
दोहा पंचक. . . . विविध
अपने ही दुश्मन बने, औरों की क्या बात ।
अपनेपन की धुंध में, मिले कई आघात ।।
ऐसे तो बनते नहीं, जग में सभी महान ।
करना पड़ता हैं बहुत, पापों का संधान ।।
अर्थ लोभ में जिंदगी, ऐसी लिपटी आज ।
जली कोपलें भाव की , कुंठित हुआ समाज ।।
माना जीवन चक्र का, बदल गया है रूप ।
हर कोई अब छीनता, साथ छाँव के धूप ।।
मुख मंडल पर शोक है, आँखों में है पीर ।
मोह तोड़ ममता चली, छोड़ देश का तीर ।
सुशील सरना / 27-3-25