क्या करें मन मानता नहीं!!
कभी होता है जमीं पर,
कभी घुमता है गगन ,
कभी भटकता है बहुत दूर,
तो कभी होता निकट की ओर,
अपनी सीमाओं को आंकता नही,
क्या करें की मन मानता नहीं!
पास हो जो भी अपने,
उसे झांकता नहीं,
मचलता है किसी और की ओर,
चाहता है उसे पाना,
ललचाया था जिस पर मन,
अपनी सीमाओं को पहचानता नहीं,
क्या करें की मन मानता नहीं!
कोसता है अपनी किस्मत पर,
जलता है उनकी हैसियत पर,
पालता नहीं वह हौसला,
जो बदल देती है तसवीर,
सब्र की कोई सीमा नही होती,
क्यों ये जानता नहीं,
अपनी सीमाओं को पहचानता नहीं,
क्या करें मन मानता नहीं!
अमीर गरीब का फर्क जानता है,
दिन और रात का फर्क मानता है,
समझता है जमीं आसमान का अंतर,
झेलता है जब दूरियां इंसानों पर,
मिलती है रुसवाई जमाने से,
तिल तिल कर जलता इस हिकारत पे,
मन होता है बेचैन उनकी शरारत पे,
तब आंसूओं से भरे नैन,
छीन लेते हैं सुख चैन,
तब बिफर पडता है वह मर मीट जाने को,
उदृत हो उठता है सब कुछ हथियाने को,
फिर चाहे मिले वह किसी विधि,
हो चाहे वह किसी की भी निधि,
लगता है झपटने,
प्रतिकार पर लडने,
मिल जाए वो जो,
चाहता है मन,
रहती आई है सदा ,
यही अनबन,
जानता नहीं,
क्या करें की मन मानता नहीं !!