रचना
कालचक्र
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मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं
सूर्य की सुनहरी किरणों संग चलता हूं
बचकानेपन वाले मन से क्षण-क्षण लड़ता हूं ।
स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाता हूं
स्वयं ही निराशा के सागर से निकल
आशा के मोती चुनता हूं
मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं ।
अकेला ही चल पड़ता हूं
उन वीरान रास्तों पर
जिन पर चलना और फिर न लौटना
पर मैं लौट आता हूं
मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं ।
पल-पल अनर्थ से डरता हूं
कालचक्र से लड़ता हूं
भूत, भविष्य और वर्तमान से कहता हूं
मैं रोज जीता हूं
और रोज मरता हूं ।
– मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक घर तारौली गूजर, फतेहाबाद, आगरा, 283111