जीवन की प्रथम यात्रा

जीवन की प्रथम यात्रा:-
जिस तरह पानी में नमक घुला रहता है, मैं भी उसी तरह इस जगत में घुला हुआ था। अचानक ही मुझे किसी ने आवाज दी और कपड़ों की भाँति एक जिस्म मुझे पहना दिया। वहाँ पर अंधेरा था, पानी था, सीमित जगह थी, बाहर से आती आवाजें थी और कुछ स्पर्श जो मेरी कंबल जैसी गुफा के ऊपर सहलाए जाते थे। मैं खुश था पर एक जिज्ञासा भी थी कि बाहर क्या है, जहाँ से ये आवाजें आती हैं, प्यार भरे स्पर्श का एहसास होता है। तभी एक दिन अचानक मैं उस पानी से भरी गुफा में खुद ही घूमने लगा, मेरा सिर उल्टा हो गया और लगा जैसे कोई मुझे मेरी कंबल जैसी गुफा से धक्का दे रहा हो। यह एहसास महसूस कर मैं चौंक गया, मैं डर गया तभी अचानक अंधेरा हटा और प्रकाश मेरी आँखों पर गिरा, मेरी गुफा का पानी कहीं फैल गया, और एक मजबूत हाथ ने मुझे उस गुफा से ऐसे खींच लिया जैसे किसी कमजोर से कोई उसका हक छीन लेता है। पहली बार मुझे दर्द महसूस हुआ और यह भी कि मैं कमजोर हूँ। इसलिए मैं जोर से रो पड़ा मगर तभी वही प्रेमपूर्ण स्पर्श पुनः मैंने महसूस किया और पहले से कहीं ज्यादा। उसी स्पर्श ने मुझे हिम्मत दी आगे बढ़ने की खुद को मजबूतकरने की और एक छोटी यात्रा पूर्ण करने बाद एक बड़ी यात्रा पर चल निकलने की। अब उसी यात्रा को पूर्ण करने के लिए मैं हर दिन मुश्किल चुनौतियों से लड़ रहा हूँ मगर हार नहीं मान रहा, एक योद्धा की अपने प्रत्येक कौशल का प्रयोग कर मैं लगातार आगे बढ़ रहा हूँ जिसमें मेरी माँ का प्रेम कवच की भाँति मेरी रक्षा करते हुए मुझे हिम्मत दे रहा है, लगातार यात्रा पर आगे बढ़ने की।
प्रशान्त सोलंकी
नई दिल्ली-07