शाम की गोधूलि बेला
सालों बाद गाँव जाने का अवसर मिला। शहरी भागदौड़, कोलाहल और व्यस्त जीवनशैली के बीच गाँव की मिट्टी की सुगंध, वहाँ की सादगी और अपनापन जैसे कहीं भीतर से आवाज़ दे रहा था। जब गाँव की ओर कदम बढ़ाए, तो बचपन की अनगिनत यादें जेहन में तैरने लगीं।
गाँव पहुँचते ही एक अलग ही सुकून का एहसास हुआ। मिट्टी की सौंधी महक, खुला आसमान, दूर तक फैले खेत और बाग-बगीचे, सबकुछ जैसे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मार्च में फाग की मादक हवा शरीर को छूकर भीतर तक खुमारी भर रही थी। हर झोंका जैसे होली के रंगों की मिठास में भीगा हुआ था।
शाम धीरे-धीरे ढल रही थी, और गोधूलि का मनोरम दृश्य सामने था। चूल्हों से उठता धुआँ, घर लौटते पंछियों की चहचहाहट और कच्ची पगडंडियों पर खेलते बच्चों की किलकारियाँ—सबकुछ मानो समय की किसी पुरानी किताब के पन्नों को पलट रहा था। गाँव के बुज़ुर्ग पीपल के नीचे बैठे हंसी-ठिठोली कर रहे थे, उनके अनुभवों से भरी बातें सुनकर मन में एक अजीब-सी शांति का संचार हो रहा था।
खेतों के किनारे चलते हुए मैंने बचपन की उन पगडंडियों को महसूस किया, जहाँ नंगे पाँव दौड़ने का अपना ही आनंद था। पेड़ों की झुरमुटों से छनकर आती सूरज की तिरछी किरणें शाम के सौंदर्य को और भी मोहक बना रही थीं।
शाम ढलते ही हल्की ठंडक बढ़ गई, लेकिन दिल में एक अजीब-सा सुकून था। गाँव की यह आत्मीयता, इसकी सादगी और अपनापन, शायद यही वो एहसास था जिसे मैं वर्षों से मिस कर रहा था।
वापस लौटते हुए महसूस हुआ कि वक़्त भले ही बदल गया हो, पर गाँव की मिट्टी में आज भी वही अपनापन, वही शांति और वही बचपन की मासूमियत बसी हुई है। यह यात्रा सिर्फ़ गाँव तक की नहीं थी, बल्कि यह एक यात्रा थी—यादों की, अपने अस्तित्व की, और उस अटूट प्रेम की, जो बचपन से मेरे मन में गाँव के लिए था।