स्वप्निल दृग
///स्वप्निल दृग///
प्रिय प्राण मेरा दृग अंचल में सोता है।।
उद्वेलित सागर उद्वेलित अग जग।
कूजते सदा थल नभ में खग मृग।।
अब देख लें कब कौन यहां रोता है।
प्रिय प्राण मेरा ….।।
उनको आज मैं उपहार दे दूं।
अश्रु बूंदों का मुक्ता हार दे दूं।।
तब न कोई अश्रु मुक्ता बन खोता है।
प्रिय प्राण मेरा…. ।।
निर्झर की यह नीर राशि।
अवनी अंचल की सुधाभासी।।
आज सागर में कौन लगाता गोता है।
प्रिय प्राण मेरा …. ।।
मधु वन का सारा मलय।
झूमकर कहता अ-निलय।।
अब सारा पुण्य कौन यहां धोता है।
प्रिय प्राण मेरा…. ।।
कहकर यहां गाथा सुना दूं।
सारा तमिस्र जग का भुला दूं।।
अन्तर स्वप्निल दृग भावभरा रोता है।
प्रिय प्राण मेरा…. ।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट(मध्य प्रदेश)