उदधि सुधा
///उदधि सुधा///
उदधि के प्राणों का अन्तर भी,
बरस पड़ता घन हृदय कथा।
प्रिय यामिनी के उज्ज्वल तन से,
झलके यूं जस सौरभ सुधा।।
आज क्यों पीड़ा को वृथा ही,
झलकाते हो मानस पटल से।
उदधि तुम्हें किस हेत शतधारी,
जग ज्वाला की अनल व्यथा।।
संचित कर तू मधु मेघों सा,
आशाओं को अपने हृदतल में।
मधु संचय को बस जाने दे,
झंकृत सरस सरित वीणा में।।
यामिनी के तड़पन की झंझा,
क्या विरह वियोग की बात नहीं।
जो लड़कर झंझा वातों से,
सुप्त हो जाती असीम अंतर में।।
शुचि अन्तर का उद्दाम वेग,
सुलगा दे अन्त: दीपक को।
कर दे उर्वर मानस तल को,
अमृत सुधा सा बन जाने में।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट मध्य प्रदेश