अच्छा हुआ टूट गए ख्वाब मगरुर मेरे ,

अच्छा हुआ टूट गए ख्वाब मगरुर मेरे ,
जबसे आंखों में बसे थे , नींदों का ठिकाना न था ,
जिंदगी दूर पड़ी थी कहीं घरौंदों में
जिस्म रूहों सा भटकता रहा ,कोई आशियाना न था ।
हौंसले खूब किए , चांद छू लें लेकिन ,
चांद की गलियों में अब , मेरा आना जाना न था ।
सांवली शामें ये , बहुत उदास रहती हैं ,
कोई सुबह दर्द बांट सके , अब वो जमाना न था ।
बहुत ऊंचे थे किले , अपने अरमानों के ,
बनाई दिल पर इमारत , हम सा कोई दीवाना न था ।मुस्कुराने की आदत थी हमें एक मुद्दत से ,
जरा सी बात पर हंस दें ,अब वो बहाना न था ।
हद से ज्यादा बड़ी है कीमत सुकून की ,
हमारे पास दौलत का अब वो खजाना न था ।
आकर हमारे बहुत करीब वो लौट गईं ,
अपने घर की दहलीज का खुशियों से याराना न था ।
हाथ रखा है जहां , दर्द अब भी वहां ,
समझेगा कौन भला किसी से दोस्ताना न था ।
मंजू सागर
गाजियाबाद