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19 Feb 2025 · 2 min read

#लघुकथा-

#लघुकथा-
■ हो गई शिनाख़्त…।।
[प्रणय प्रभात]
सहज-सरल व छल-कपट से रहित पति-पत्नी सैर को निकले। घूमते-घूमते जा पहुंचे एक गहन जंगल में। जंगल सुरम्य होकर भी एकदम निर्जन व बियावान। बीच जंगल में उनका सामना हो गया लुटेरों से। दोनों ने ऊपरी सामान उनके हवाले कर जान बचाई। कुछ देर बाद एक नया गिरोह मिला। जो बचा-खुचा भी झपटने में सफल रहा। इसी तरह हर मोड़ पर कुछ न कुछ लुटता गया। जैसे-तैसे दोनों बाहर सड़क तक आए। सोच रहे थे कि जिसने दिया, उसने ले लिया। जान और सम्मान बना रहा, बहुत है।
दोनों लुटे-पिटे अलग ही दिखाई दे रहे थे। भूख-प्यास व थकान से निढाल भी थे। सड़क किनारे बसे ग्रामीण सब समझ गए। दोनों को ले गए पास की पुलिस चौकी में। कुछ ही देर बाद शुरू हुई पूछताछ। पहला सवाल था- “क्या-क्या गया?” जवाब था- “कपड़े-लत्तों व आबरू के सिवा सब कुछ।” अगला सवाल था- “लूटने वाले कैसे थे…? कोई पहचान…?” पति-पत्नी नीची निगाह किए मौन। फिर से सवाल उठा- “किसी की कोई पहचान, कोई शिनाख़्त, कोई ख़ास हुलिया…?” दोनों इस सवाल पर भी बिल्कुल चुप। साफ़ लग रहा था बहुत कुछ जानते हैं। बस बताना नहीं चाह रहे थे शायद।
चौकी इंचार्ज बुरी तरह झल्ला चुका था। जांच में असहयोग उसे असहज बना रहा था। सही जवाब निकलवाने में जब कुछ और सवाल ज़ाया हो गए, वो उखड़ पड़ा। ज़ोर से चिल्ला कर बोला- “ख़ामोश क्यों हो? कुछ बताते क्यों नहीं? आख़िर कैसे दिखते थे लुटेरे…?” सवालों की बारिश से घबराए पति-पत्नी के होंठ खुले। दोनों के मुंह से एक साथ दबी हुई सी आवाज़ में जवाब फूट पड़ा- “बिल्कुल नाते-रिश्तेदारों जैसे…।।” चौकी प्रभारी इस अप्रत्याशित से जवाब पर हक्का-बक्का था। ग्रामीण एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। चौकी में पूरी तरह सन्नाटा पसर चुका था।।
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-सम्पादक-
न्यूज़&व्यूज (मप्र)

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