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8 Feb 2025 · 8 min read

गीता के छन्द : प्रवेशिका 1/5

प्रवेशिका
इस कृति में महर्षि वेदव्यास कृत श्रीमद्भगवद्गीता के छन्दों की सरल-सुबोध व्याख्या पारम्परिक काव्य-शास्त्र को आधार मान कर की गयी है। इस व्याख्या में कुछ संकेतों का प्रयोग किया गया है, जिन्हें समझना आवश्यक है, यथा-
(क) ल = लघु, गा = गुरु,
(ख) य = यगण या लगागा, म = मगण या गागागा, त = तगण या गागाल, र = रगण या गालगा, ज = जगण या लगाल, भ = भगण या गालल, न = नगण या ललल, स = सगण या ललगा,
(ग) विषम = 1,3,5,7 … संख्याएं तथा सम = 2,4,6 … संख्याएँ।
(घ) चिह्न ^ का प्रयोग मात्रोत्थान के लिए किया गया है।
(च) मापनी = वर्णों के मात्राभार अर्थात लघु-गुरु का क्रम। वर्णिक छन्दों में वर्णों के अनुरूप वर्णिक मापनी होती है जबकि मात्रिक छन्दों में उच्चारण के अनुरूप वाचिक मापनी होती है।

वर्णिक मात्राभार :
वर्णों के उच्चारण में लगने वाले आनुपातिक समय को मात्राभार कहते हैं। वस्तुतः यह वर्णिक भार होता है। इसे निर्धारित करने के लिए कुछ नियम अग्रलिखित हैं-
(क) हृस्व स्वरों यथा- अ, इ, उ, ऋ का मात्राभार लघु होता है, इसे 1 या । या ल से व्यक्त करते हैं।
(ख) व्यंजनों में हृस्व की मात्रा लगने से उसका मात्राभार लघु या 1 या ल ही रहता है यथा- क, कि, कु, कृ आदि।
(ग) दीर्घ स्वरों यथा- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ का मात्राभार गुरु होता है, इसे 2 या S या गा से व्यक्त करते हैं।
(घ) व्यंजनों में दीर्घ की मात्रा लगने से उसका मात्राभार गुरु या 2 या गा हो जाता है यथा- का = 2, की = 2, कू = 2, के = 2, कै = 2, को = 2, कौ = 2 आदि।
(च) अनुनासिक लगने से वर्ण के मात्राभार में कोई परिवर्तन नहीं होता है यथा- रँग = 11, माँग = 21, जाउँ = 21 आदि।
संस्कृत छन्दों में अनुनासिक का प्रयोग नहीं होता है।
(छ) अनुस्वार लगने से लघु वर्ण का भात्राभार बढ़ कर गुरु या 2 या गा हो जाता है यथा- रंग = 21, सिंह = 21, तुंग = 21, पतंग = 121, गंगा = 22 आदि।
(ज) संयुक्ताक्षर का मात्राभार लघु या 1 या ल होता है यथा- ग्रह = 11, स्वर = 11, स्वयं = 12, पात्र = 21 आदि।
(झ) संयुक्ताक्षर के पूर्ववर्ती लघु का उच्चारण गुरु या 2 या गा हो जाता है यथा- पत्र = 21, मध्य = 21, उच्च = 21, तृष्णा = 22 आदि, जबकि संयुक्ताक्षर का पूर्ववर्ती गुरु ज्यों का त्यों रहता है यथा- आत्मा = 22, शाश्वत = 211 आदि।
(ट) संयुक्ताक्षर के अर्धाक्षर से पूर्व एक अन्य अर्धाक्षर होने से मात्राभार और वर्णों की संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जैसे ज्योना = गागा, ज्योस्ना = गागा, ज्योत्स्ना = गागा। इसी प्रकार गच्छन्य = गागाल, गच्छत्य = गागाल, गच्छन्त्य = गागाल। यहाँ पर काल्पनिक शब्द ज्योना, ज्योस्ना, गच्छन्य और गच्छत्य केवल मात्राभार समझाने के उद्देश्य से गढ़े गये हैं।
अन्य उदाहरण :
मत्स्थानि = गागाल,

वाचिक मात्राभार
मात्रिक छन्दों में उच्चारण के अनुरूप मात्राभार माना जाता है जिसे वाचिक मात्राभार कहते हैं जैसे सरल का वाचिक भार = 12 क्योंकि सरल का उच्चारण सदैव स रल होता है, सर ल नहीं। मात्रिक छन्दों की मापनी सदैव वाचिक भार पर आधारित होती है जिसे वाचिक मापनी कहते हैं। चूँकि गीता के सभी छन्द वर्णिक हैं इसलिए इस सन्दर्भ में वाचिक भार और वाचिक मापनी की विस्तृत व्याख्या यहाँ पर अपेक्षित नहीं है।

वर्णिक मापनी
वर्णिक छन्दों की मापनी सदैव वर्णिक भार पर आधारित होती है जिसे वर्णिक मापनी कहते हैं। उदाहरण के लिए उपेंद्रवज्रा छन्द के प्रत्येक चरण की मापनी इस प्रकार है-
लगाल गागाल लगाल गागा
यथा प्र/दीप्तं ज्व/लनं प/तङ्गा
लगाल गागाल लगाल गागा
विशन्ति/ नाशाय/ समृद्ध/वेगाः।
लगाल गागाल लगाल गागा
तथैव/ नाशाय/ विशन्ति/ लोका-
लगाल गागाल लगाल गागा
स्तवापि/ वक्त्राणि/ समृद्ध/वेगाः।
(गीता 11.29)
इस मापनी को लिखने के अन्य ढंग इस प्रकार हैं-
लगाल गागाल लगाल गागा (लगावली)
121 221 121 22 (अंकावली)
जभान ताराज जभान गागा (गणसूत्रावाली)
जगण तगण जगण ग ग (गणावली)
इस कृति में सरल सुबोध और वैज्ञानिक होने के कारण लगावली को प्राथमिकता दी गयी है।

वर्ण और अक्षर :
काव्यशास्त्र में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग ‘अक्षर’ के अर्थ में किया जाता है, इसलिए इस कृति में प्रयुक्त ‘वर्ण’ शब्द से वही अर्थ ग्रहण करना अभीष्ट है। अन्यथा अविभाज्य स्वर या व्यंजन को वर्ण कहते हैं जैसे ‘क’ एक अक्षर है जिसमें दो वर्ण हैं- क् और अ। इसी प्रकार श्री एक अक्षर है जिसमें तीन वर्ण हैं- श्, र् और ई। किन्तु काव्यशास्त्र में परम्परा से अक्षरों क, श्री आदि को ही वर्ण कहा जाता है और इसी अर्थ में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग इस कृति में किया गया है।

चरण और पंक्ति :
गीता प्रेस गोरखपुर की गीता में चार चरणों के छन्द को प्रायः दो पंक्तियों में लिखा गया है। इस प्रकार एक पंक्ति में आये दो चरणों के बीच कोई विभाजन रेखा भी नहीं है। इस कृति में एक पंक्ति के दो चरणों को / चिह्न द्वारा विभाजित कर दिया गया है जिससे छन्द को समझने में सुविधा रहे। यह विभाजन कहीं-कहीं पर छन्द के मूल स्वरुप को यथावत रखते हुए शब्द के बीच में करना पड़ा है जो वैदिक और अन्य संस्कृत छन्दों के लिए एक सामान्य बात है।

यति और उपरति :
छन्द के चरण के मध्य और अंत में आने वाले अल्प या पूर्ण विराम या विश्राम को सामान्यतः यति कह दिया जाता है किन्तु इस कृति में दोनों में स्पष्ट विभेद करने के लिए चरण के मध्य में आने वाले विश्राम को यति और चरण के अंत में आने वाले विश्राम को उपरति कहा गया है। गीता के छन्दों में कहीं पर यति का प्रयोग नहीं है, केवल उपरति का ही प्रयोग हुआ है।
यति और उपरति को प्रचलित छन्द-शास्त्र के अनुसार शब्द के अंत में ही आना चाहिए। यति भले ही शब्द के मध्य में आ जाये किन्तु उपरति को अनिवार्यतः शब्द के अंत में ही आना चाहिए अर्थात उपरति पर चरण को पूर्ण हो जाना चाहिए किन्तु गीता में (और अनेक अन्य संस्कृत-काव्य-ग्रंथों में भी) ऐसा नहीं है। इसे भी वैदिक श्लोकों के सन्दर्भ में व्यवधान न मान कर एक विधान ही मानना उचित है।
गीता में प्रयुक्त प्रत्येक श्लोक में चार चरण हैं किन्तु इन्हें गीताप्रेस गोरखपुर की श्रीमद्भगवतगीता में तथा अधिकाँश अन्य सभी पारंपरिक ग्रंथों में प्रायः दो पंक्तियों में लिखा गया है। ऐसे छन्द को छन्द-शास्त्र की कसौटी पर कसने के लिए चार चरणों में लिखना आवश्यक हो जाता है अर्थात पारम्परिक एक पंक्ति को दो चरणों में तोड़ना आवश्यक हो जाता है। ऐसा करने पर विभाजन अर्थात उपरति कहीं-कहीं किसी शब्द के मध्य में पड़ती है और वहाँ पर पंक्ति को पृथक कर उपरति के अनुरूप पूर्ण विराम लगाना व्याकरणसंगत नहीं प्रतीत होता है। अस्तु एक पंक्ति में लिखे गये दो चरणों को विभाजित करने के लिए इस कृति में / चिह्न का प्रयोग किया गया है।
उदाहरणार्थ गीता का यह श्लोक विचाराधीन है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम। 18.78
इसे गीताप्रेस की पुस्तक में इसी प्रकार लिखा गया है और अन्य पुस्तकों में भी प्रायः ऐसे ही लिखा जाता है। इसकी प्रत्येक पंक्ति में दो-दो चरण हैं। इन चरणों को अलग करने पर श्लोक का यह स्वरुप प्राप्त होता है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो / यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर् / ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम। 18.78
ध्यातव्य है कि दूसरी पंक्ति का चरणों में विभाजन उच्चारण के अनुरूप किया है, संधि-विग्रह के अनुरूप नहीं। यथा-
भूतिर्ध्रुवा = भूतिर् + ध्रुवा
काव्य में यही उचित भी है क्योंकि संधि विग्रह से श्लोक के छन्द का मूल स्वरुप बदल जाता है जो उचित नहीं है।
उपर्युक्त श्लोक के चार चरणों को आवश्यकतानुसार चार पंक्तियों में इस प्रकार भी लिखा जा सकता है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो
यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्-
ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम। 18.78
छन्दशास्त्रीय आधार पर यही स्वरुप सर्वोत्तम और सर्वोचित है।
संधि-विग्रह :
छन्द के शब्दों का संधि-विग्रह करने से छन्द का स्वरुप बदल जाता है, इसलिए इस कृति में संधि-विग्रह से बचा गया है किन्तु गणों को प्रदर्शित करने के लिए कहीं-कहीं पर अक्षरों/वर्णों को विभाजित करना पड़ा है जो इसप्रकार किया गया है कि उससे वर्णों की संख्या और उनके मात्राभार में कोई परिवर्तन न हो जैसे ‘पुरुजित्कुन्तिभोजश्च’ में चार वर्णों के बाद यगण को प्रदर्शित करने के लिए उसे ‘पुरुजित्कुन्(तिभोजश्)च’ इस प्रकार लिखा गया है। इसी प्रकार चरणों के विभाजन में भी संधि-विग्रह न कर मूल स्वरुप को यथावत रखा गया है, यथा- भूतिर् / ध्रुवा।

छन्द-संकेत :
मुख्य उपजाति के अंतर्गत उउइउ, इइउउ और इउउउ प्रकृति के छन्दों के नामों में केदार भट्ट कृत ‘वृत्त-रत्नाकर’ और जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु-कवि’ कृत ‘छन्द-प्रभाकर’ के बीच भिन्नता है। सम्प्रति इस कृति में ‘छन्द-प्रभाकर’ में उल्लिखित नामों, यथा- कीर्ति, वाणी, शाला, बाला, सिद्धि, ऋद्धि, प्रेमा, जाया, माला, माया, रामा, हंसी, आर्द्रा और भद्रा, का ही प्रयोग किया गया है क्योंकि वृत्त-रत्नाकर में कुछ नामों का अभाव है तथा छन्दों के संकेत वृत्त-रत्नाकर के अनुसार उपेंद्रवज्रा के लिए उ और इंद्रवज्रा के लिए इ का ही प्रयोग किया गया है क्योंकि छन्द-प्रभाकर के संकेत उपेंद्रवज्रा के लिए ल और इंद्रवज्रा के लिए गा प्रयोग करने से छन्द-नामों जैसे ललगाल, गागालल, गाललल आदि से वर्ण-समूह का भ्रम उत्पन्न होता है।

मात्रापतन और मात्रोत्थान :
काव्यपंक्ति को उसके छन्द के अनुरूप लय में पढने के लिए जब किसी गुरु का उच्चारण लघु करना पड़ता है तो इसे मात्रापतन कहते हैं और इसके विपरीत जब छान्दाग्रह से किसी लघु का उच्चारण गुरु करना पड़ता है तो इसे मात्रोत्थान कहते हैं। गीता के छन्दों में कहीं मात्रापतन की आवश्यकता नहीं पड़ती है जबकि चरणान्त में कभी-कभी मात्रोत्थान करना पड़ जाता है। संस्कृत के छन्दों में ऐसा मात्रोत्थान एक सामान्य बात है और सर्वमान्य है। ध्यातव्य है कि गीता में अनेक ऐसे श्लोक है जिनके चरणान्त में गुरु के स्थान पर लघु है और यदि इस लघु का मात्रोत्थान न कर इसे लघु ही मान लिया जाये तो उन श्लोकों के लिए किसी नये छन्द का नाम देना होगा।
यदि इस मात्रोत्थान को न मान कर प्रत्येक मात्रोत्थान वाले श्लोक को एक नये प्रकार का छन्द मान लिया जाये तो गीता के छन्दों की संख्या बहुत अधिक हो जायेगी।
इससे अनावश्यक जटिलता बढ़ जायेगी और संस्कृत-छन्दों के लिए सर्वमान्य धारणा का अनादर भी होगा। अस्तु गीता में छन्दों की संख्या बढ़ाने का संवरण त्याग कर मत्रोत्थान को स्वीकार कर लेना ही उचित प्रतीत होता है। इस मात्रोत्थान को इस कृति में ^ चिह्न से इंगित किया गया है।
इसके साथ-साथ संयुक्ताक्षर का पूर्ववर्ती लघु वर्ण उच्चारण में गुरु हो जाता है, इसे व्यक्त करने के लिए कहीं-कहीं पर पूर्ववर्ती लघु वर्ण के बाद ^ चिह्न का प्रयोग किया गया है। ऐसे स्थलों पर लघु के बाद आने वाले अर्धाक्षर को उच्चारण में दो बार बोला जाता है जैसे हत्वा का उच्चारण ‘हत् त्वा’ किया जाता है किन्तु इसे लिपि में प्रदर्शित करना व्याकरणसंगत नहीं है। अस्तु जहाँ मात्रोत्थान को इंगित करना आवश्यक लगा है वहाँ ^ चिह्न का प्रयोग किया गया है, यथा हत्वा को ह^त्वा लिखा गया है। इसकी आवश्यकता विशेष रूप से गणों को विभाजित करने में कहीं-कहीं पर पड़ी है।

विश्लेषण वैज्ञानिक क्यों?
इस कृति में समस्त छन्दों को केवल लघु और गुरु अर्थात ल और गा के आधार पर समझाने की वैज्ञानिक प्रणाली का प्रयोग किया गया है जिसका परीक्षण और सत्यापन किया जा सकता है तथा जिसके द्वारा नवीन परिणामों का निगमन भी किया जा सकता है। इसलिए इसे शास्त्र के स्थान पर विज्ञान कहना और इसके विषलेषण को शास्त्रीय के स्थान पर वैज्ञानिक कहना अधिक सटीक लगता है।

सन्दर्भ : कृति ‘गीता के छन्द’, कृतिकार- आचार्य ओम नीरव 8299034545

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