मेरे मसान की मिटटी तो, तन्हा छोड़ दी जाए,
मेरे मसान की मिटटी तो, तन्हा छोड़ दी जाए,
सुकून का एक लम्हा तो, कभी हिस्से में मेरे आये।
धूलें उड़ती हैं इस बंजर में, थोड़ी सकपकाती हुई,
आँधियों का बवंडर कभी तो, मुझपर तरस खाये।
यहां चिंगारियों की बेचैनी से हीं, शामें हुईं हैं रौशन,
लपटों की धमकियों से, तू धरा को क्या डराए।
चीथड़ों की गठरियों के, ठहाके लगते हैं यहां,
और तू साजिशों का जाल, मेरे मरघट में है पहुंचाए।
चीखों का मुशायरा है यहाँ, और दर्द की दावत,
और तू बस एक शूल लिए, कर्मों पर अपनी इतना इठलाये।
सींची है ये भूमि, मृदु हृदय की जलती राख से,
पैने नख स्याह एहसासों के तू, मेरी कालिमा में क्या गराये।
उदासीनता का एक भंवर है, जहां कठोरता की कीलें हैं लगी,
तू फ़िक्र अपनी कर कि, तेरी हस्ती का सूरज ना बुझने पाए।