यायावरी

यायावरी
अभिलाषा रहती है मन में,
दुनिया भर में मैं जाऊं।
यायावरी स्वभाव है मेरा,
एक जगह न रह पाऊं।
कभी समंदर के साहिल पर,
कभी विपिन में मैं होता हूँ।
मरु प्रदेश की तपन कभी तो,
बर्फ श्वेतिमा में खोता हूँ।
बादल सा मनमौजी हूँ मैं,
बूंदे बन जल बरसाऊं।
यायावरी स्वभाव है मेरा,
एक जगह न रह पाऊं।
कभी कभी तीरथ भी करता,
सुर के गुण मन से गाता।
स्तुति गाकर के अंतस्थल,
अनहद सुख से भर जाता।
विचरण राम को राम बनाया,
विचरण बुद्ध को शुद्ध किया।
विचरण कर के पांच पाण्डव,
कौरव दल से युद्ध किया।
एक घुमंतू बन, कर विचरण,
आह्लादिनी जुगत बतलाऊँ।
यायावरी स्वभाव है मेरा,
एक जगह न रह पाऊं।
कहीं रहूं लेकिन मन कहता,
मुरशिद दर पर प्रतिदिन जाऊँ।
यायावरी स्वभाव है मेरा,
एक जगह न रह पाऊं।