गंगा के तीर

मन गंगा निर्मल हुई डुबकी बारंबार।
तन मथुरा काशी हुआ महाकुंभ हर बार।।
सत् रज तम त्रिवेणी का, संगम है यह शरीर।
सत्कर्मों का अमृत पी मन गंगा के तीर।।
द्वैत को तू क्यों पकड़ रहा सब कुछ एक ही ब्रह्म।
धूनी रमा कर बैठ जा मिट जाएगा भ्रम।।
वाह्य जगत में ढूंढ रहा, घट घट में जो व्याप्त।
भीतर दृष्टि को मोड़ दे प्रभु दर्शन पर्याप्त।।
सांसों की डोर थाम के मन से हो जा शुद्ध।
शांत चित् जब होएगा हो जाएगा बुद्ध।।