हिसाबे ग़म करूँ, या ज़िक्रे बहार करूँ

… ज़िक्र ..
हिसाबे ग़म करूँ , या ज़िक्रे बहार करूँ ,
परेशां हूँ , किस बात की तकरार करूँ …
कभी दिल भरता , कभी आँख बरसती है ,
हैरान हूँ , किस किस चोट की दरार भरूँ …
लोगों के दिये इनामात , इल्ज़ाम समेट कर ,
सुबह के पहले अख़बार में , इश्तिहार करूँ ..
रात की स्याही से , या दिन के उजाले से ,
तसवीर किसके लिये , नक्श निगार करूँ..
ज़ख्म देते हैं नये रोज़ , ‘नील’ ज़माने वाले ,
ज़िक्र करके किस किसको , अश्क़बार करूँ ..
✍️नील रूहानी ….