“सरसों की कुड़माई..”

ऋतुराज बसन्त के आगमन की सभी मित्रों-.🥰 को ढेरों बधाइयाँ।
प्रकृति आज मानो तन-मन से सभी जीवधारियों, पेड़-पौधों, एवं ब्रह्मांड के कण-कण को प्रेम, सौहार्द एवं समरसता का सँदेश देने पर आमादा है। आइये हम सब भी क्यों न इसके मनोहारी सँगीत को न केवल सुनें अपितु आत्मसात कर इसी की लय-ताल मेँ ही थिरक उठें..!🎊
माँ सरस्वती के चरणों मेँ एक गीतिका समर्पित है-
” सरसों की कुड़माई..!”
गली, मुहल्ले मेँ है चर्चा,
बात ज़ुबाँ पर आई।
इसके सिवा न अब कोई भी,
देती गूंज सुनाई।।
छाया है गेहूं पर यौवन,
सब मिल करें खिँचाई।
पढ़ना-लिखना भूल,
महज़ कसरत से लगन लगाई।।
सरसों की भी छटा मनोहर,
कुछ ख़ुद मेँ सकुचाई।
गेहूँ के नयनों मेँ अपना,
देख रूप शरमाई।।
मादकता की मूर्ति बन गई,
मौसम की अँगड़ाई।
कुछ तो है पर ख़ास, आज जो,
कली-कली मुस्काई।।
एक नज़र मेँ हुई बात सब,
कैसी रीत बनाई,
कौन कहे अब, दिल अपना है,
लेकिन प्रीत पराई।।
प्रकृति-जन्य आशीष,
पीत पुष्पों की रँगत पाई।
बने पुरोहित, केले राजा,
पूजा थी करवाई।।
घोर ठँड मेँ चिड़िया रानी,
चुन-चुन दाने लाई।
आँचल मेँ सरसों के मानो,
कर दी गोदभराई।।
चना, मटर, जौ ने, यारी की,
उर से रस्म निभाई।
आवभगत की सबकी,
जाए हो न कहीं रुसवाई।।
ज्वार-बाजरा, कोदों, सावाँ,
पुलकित, मन मेँ आई।
नम्बर, अपना भी आएगा,
करेंगे अब न ढिठाई।।
गाजर, मूली ने भी अपनी,
साख नहीं बिसराई।
बनकर सखी-सहेली,
करतीं गेहूँ सँग हँसाई।।
फुदक-फुदक गिलहरियां आईं,
करतीं साफ़ सफ़ाई।
नन्हे ख़रगोशों को लेकिन,
धमाचौकड़ी भाई।।
काँव-काँव कर कौओं ने भी,
अपनी धाक जमाई।
ख़बरदार, भावी दम्पति को,
अब जो नज़र लगाई।।
आँख मार कर बोला गेहूं,
भागेगी तनहाई।
ले जाऊँगा जल्द बनाकर,
हे प्रिय, तुझे लुगाई।।
सबके मन मेँ ” आशा ” जगती,
कैसी लगन लगाई।
रसिक राज ऋतुराज ,
तुम्हें है शत-शत आज बधाई।।
चटखारे ले-ले सब क्यूँकर,
देते मगर दुहाई।
आज हो गई गेहूं से क्या,
सरसों की कुड़माई ..!
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