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3 Feb 2025 · 1 min read

गज़ल

थे मोहब्बत हम उनपर लूटाते रहे ।
वो हमें देखकर मुस्कुराते रहे ।

मैंने दुपट्टे से उनका जो सर ढक दिया ,
वो नासमझ हमको जाहिल बुलाते रहे ।

खिड़कियों से मिली आंधियों की भनक ,
हम दरवाज़े पर पर्दे लगाते रहे ।

खुदगर्जियाँ ही उसने कमाई बहुत ,
मेरी गज़लों से घर वो चलाते रहे ।

मोहब्बत नहीं तेरे बस की यहाँ
कुछ अपने ही मुझको बताते रहे ।

सोचकर ये दिल में चुभन होती है ,
क्यों दौलत हम उनपर लुटाते रहे ।

अब समझे निवाले की थी बद्दुआ ,
रोटियां चूल्हे पर हम जलाते रहे ।

~ धीरेन्द्र पांचाल

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