गज़ल

थे मोहब्बत हम उनपर लूटाते रहे ।
वो हमें देखकर मुस्कुराते रहे ।
मैंने दुपट्टे से उनका जो सर ढक दिया ,
वो नासमझ हमको जाहिल बुलाते रहे ।
खिड़कियों से मिली आंधियों की भनक ,
हम दरवाज़े पर पर्दे लगाते रहे ।
खुदगर्जियाँ ही उसने कमाई बहुत ,
मेरी गज़लों से घर वो चलाते रहे ।
मोहब्बत नहीं तेरे बस की यहाँ
कुछ अपने ही मुझको बताते रहे ।
सोचकर ये दिल में चुभन होती है ,
क्यों दौलत हम उनपर लुटाते रहे ।
अब समझे निवाले की थी बद्दुआ ,
रोटियां चूल्हे पर हम जलाते रहे ।
~ धीरेन्द्र पांचाल