दोहापंचक. . . . वासना
दोहापंचक. . . . वासना
तन के लोभी सब मिले, मन का मिला न मीत ।
साथ मिलन के गूँजते, यहाँ विरह के गीत ।।
तन को नजरें छीलती,आहत होता रूप ।
हर तरफ अब वासना, की चुभती है धूप ।।
प्रेम भाव में वासना, की फैली दुर्गंध ।
जीर्ण-शीर्ण सब हो गए, लोक- लाज के बंध ।
बदल गया है प्रेम का, वर्तमान में अर्थ ।
प्रेम ओट में वासना, करती सदा अनर्थ ।।
आज युवा सब प्रेम को, समझें भोग – विलास ।
प्रेम चरम को मानते, केवल दैहिक प्यास ।।
सुशील सरना / 25-1-25