#सामयिक_व्यंग्य-

#सामयिक_व्यंग्य-
■ ये कैसा जनतंत्र…?
★ निरीह “जन” की छाती पर सवार समूचा “तंत्र”
[प्रणय प्रभात]
एक बहुत बड़े मैदान के बीच छोटे से सुसज्जित व सुरक्षित पांडाल में नर्म गुदगुदे व गोल्डन कवर चढ़े सोफे पर सवार नेतागण और आला अफसर। कतारबद्ध नई-नकोर कुर्सियों पर अधीनस्थ अधिकारी, छोटे-बड़े पत्रकार, रसूखदार, पिछलग्गू पुछल्ले और उनके परिवार। साथ ही रस्सियों व जालियों के पार खुले आसमान के नीचे कड़क सर्दी की ओस में धुले धरातल पर हाथ बाँधे या जेब में डाले खड़े आम नागरिक और स्कूली बच्चे। शीतलहर के थपेड़ों को थोपे गए राष्ट्रवाद के नाम पर सहते हुए।
राष्ट्रीय त्यौहार के मुख्य समारोह में नेताओं व नौकरशाहों के लिए प्रस्तुति देने की मासूम सी चाह में अपनी बारी के इंतजार में खड़े सजे-संवरे बच्चों के दल। गणवेश में लकदक विद्यार्थियोँ की भीड़ को येन-केन-प्रकारेण अनुशासित रखने में जूझते गिने-चुने शिक्षकगण। हाथ पर हाथ रख कर तमाशबीन की भूमिका अदा करते पुलिस-कर्मी। आयोजन स्थल के मुख्य प्रवेश द्वार के पार आम जन और वाहनों को हड़काते तीसरे दर्जे के पुलिसिये। सोफों के सामने रखी टेबिलों पर नॉर्मल टेम्परेचर वाली मिनरल वाटर की बोतलें और गुलदस्ते। शीत-लहर के थपेड़ों के बीच भाग्य-विधाताओं को सलामी देने के लिए दम साध कर सतर मुद्रा में खड़े सशस्त्र दस्ते व स्कूली कैडेट्स। सर्दी की बेदर्दी के बीच भूख से बेहाल बच्चे व आम दर्शक।
व्हीआईपी कल्चर के पोषक “प्रोटोकॉल” की अकड़ के साथ व्यवस्था के नाम पर पुलिसिया धौंस-धपट। अति-सम्मानित तंत्र और महा-अपमानित बेबस जन। आयोजन प्रांगण के बाहरी द्वार से शुरू होता भेदभाव और असमानता का अंतहीन सिलसिला। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास वाले देश के आयोजन परिसर मे प्रवेश के लिए अलग-अलग दरवाज़े। आम व ख़ास गाड़ियों के लिए अलग-अलग पार्किंग। बेक़द्री से जूझते हुए अपनी प्रतिभा दिखाने को उत्सुक विद्यार्थियों के लिए एक अदद शामियाना तक नहीं। कथित जनसेवकों के सम्मान में व्हीआईपी व्यवस्था के नाम पर आधे परिसर का अग्रिम आरक्षण व अधिग्रहण यानि अधिकारों पर अधिकारपूर्वक अतिक्रमण। बड़े वर्ग के सिर पर अनुशासन और अदब की सैकड़ों तलवारें। सूट-बूट, टाई, टोपी, साफों, गमछों और वर्दियों सहित पट्टा-दुपट्टा धारकों के लिए मनचाहा करने की खुली छूट। उत्कृष्ट सेवा के नाम पर चाटुकार व चहेतों के लिए काग़ज़ी रेवड़ी (प्रशस्ति पत्र) वितरण का अग्रिम बंदोबस्त और पंच के बजाय “मंच” परमेश्वरों के पूर्व-नियत निर्णय। आख़िर क्या मायने हैं इस “गणतंत्र” के, जिसकी ढपली हम बीते 75 सालों से हर साल पूरी शिद्दत व मेहनत से बजाते आ रहे हैं?
बताएंगे लोकतंत्र के ठेकेदार….? इस बार भी बने चिरकालिक विकृतितों और विसंगतियों के पालनहार। इस बार गणतंत्र दिवस के समारोह में जन-भागीदारी बीते सालों की तुलना में आधे से भी कम। वो भी शहर की आबादी चौगुनी होने के बाद। सोचिए कर्णधारों, कहीं इसके पीछे उक्त हालात ही तो वजह नहीं….? वो भी उस मुल्क़ में जहां की राजधानी के कर्तव्य-पथ पर इस बार आम-आदमी अग्रणी पंक्ति में नज़र आए। भले ही अगले माह होने वाले सत्ता के दंगल की कृपा से ही सही। कम से कम दिल्ली के सूरमाओं को तिहरी मार के बाद समझ में तो आया कि सरकार बनाने में रेहड़ी-पटरी, खोमचे और ऑटो वाले टाइप मैदानी आम लोग ही बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह अलग बात है कि सिंहासनी टूर्नामेंट में उतरने वालों की लू में उतार अब भी नहीं दिख रहा है। जिन्हें चंद महीनों बाद इसी आम जन की चौखट पर अपना चौखटा घिसना है। किसी न किसी सूबे की सल्तनत के लिए। अपने राम अच्छे रहे जो ज़लालत और फ़ज़ीहत के बेशर्म दौर में शर्म की चादर ओढ़ कर घरेलू टीव्ही से चिपके रहे। कम से कम रोचक व रोमांचक नज़ारे तो आराम से देखने को मिले। गर्वित और आह्लादित करने वाले नज़ारे। वो भी गरमा-गरम चाय की चुस्कियों और खस्ता कुकीज़ के साथ। आत्म-सम्मान से भरपूर माहौल में। ज़िले के बड़े कार्यक्रम में कितना ही बन-ठन कर जाते, चाहे-अनचाहे धक्के ही खाते। क्योंकि अपने पास न कोई पालतू होने का पट्टा होता, न पहचान देने वाला सियासी दुपट्टा। जो घनघोर कलिकाल में घोर आवश्यक “अंगवस्त्र” बन चुका है। बहरहाल, अपनी खोपड़ी को तो सरकारी जुमला संशोधन के साथ ही सुहाया है। जो कहता है- “अपना सम्मान अपने हाथ। अपना प्रयास, अपना विश्वास। बाक़ी सब बकवास।। जो धकिया, लतिया, गलियां के घर लौटे, उन्हें “गणतंत्र” की बधाई। हम “जनतंत्र” की चाह रखने वाले बेबस व निरीह-जनों की ओर से।
जय हिंद, जय भारत, जय संविधान, जय जनतंत्र।।
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#कथ्य-
पुख़्ता यक़ीन है कि यह मंज़र आपके अपने शहर में भी साल-दर-साल उपजते होंगे। यह और बात है कि आप देख कर अनदेखी करने के आदी हों। मैं जो देखता हूँ, लिख डालता हूँ। नफ़ा-नुकसान की परवाह के बिना। यही मेरा काम है, यही कर्तव्य भी।
■सम्पादक■
★न्यूज़&व्यूज़★
(मध्यप्रदेश)