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25 Jan 2025 · 1 min read

"ऊँच-नीच सब ब्यर्थ जग..!"

ऊँच-नीच सब ब्यर्थ जग, बँधे सबहिं इक साँस।
हँइ घट-घट मँह हरि बसे, आवत नहिं बिस्वास।।

सोवत खोए तीन पन, लगि अब भोरन आस।
चार चोर सबु लै गये, यहि पन काहि उदास।।

वह पावौं, यह जाय ना, भरमजाल उलझात।
बूढ़ि नवैया ह्वै चली, डूबत दुख मा जात।।

करि तीरथ, उजरे भये, हरि-हरि गँग नहाय,
मिटत मैल मन कौ नहीं, जहँ बइठैँ गन्धाय।।

हँसत श्वान, ऊँचे मुँहन, लखि चीँटी कौ गात,
भौँकि-भौँकि, गज देखि कै, अपनी जात बतात।।

हम सोँ कवन अमीर हय, दुष्टहिँ दम्भ सुहात।
त्रेता महँ लँका जरी, कलजुग कवन बिसात।।

मिटै द्वैष, लिप्सा, भरम, सुनियौ प्रभु, अरदास।
अलख जगावत, घन्टु बजावत, बिचरत आशादास।। 🕉️🙏

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