श्रृंगार से रिझाऊंगी …………
श्रृंगार से रिझाऊंगी …………
रुक !
ऐ हंसी !
अभी इन अधरों के
द्वार न खटखटा //
अभी इन अधरों पर
सिसकती धडकनों के
नग्मे हैं //
आरिजों पर बहते
जुदाई के सावन हैं //
किसी स्पर्श की बाट जोहते
नयनों के गीले आँगन हैं //
अभी इन गर्म साँसों में
किसी की यादों की जंजीरें हैं //
सच कहती हूँ
ऐ हंसी !
तुम मेरे अधरों से
विरह की सलवटों को
न मिटा पाओगी //
मेरे शूल से एकांत पलों की
पीड़ा न समझ पाओगी //
और तो और
मेरे अंगार पलों से तुम
खुद भी झुलस जाओगी //
क्यूं अपने अस्तित्व को
मेरे विरह पलों के श्रृंगार में
व्यर्थ ही गंवाती हो //
हाँ !
लेकिन देखो
जब मेघ कंठ से
बरखा की नन्हीं बूंदें
मिलन की गीत गाती हों //
जब
मृदुल चांदनी रात में
शांत झील की सतह पर चांदनी
चाँद संग बतियाती हो //
तब
तुम मेरे अधर द्वार पर
बेझिझक चली आना //
मेरे अधरों पर
अपना श्रृंगार कर जाना //
तब
मैं तुम्हें अपने अंग लगाऊँगी //
अपने करों से
मेरे चहरे से घूँघट हटाते
अपने हृदेश्वर को
तुम्हारे श्रृंगार से रिझाऊंगी //
सुशील सरना /