अनजाना जीवन
///अनजाना जीवन///
निर्झर मन अन्तर सोता है,
पार क्षितिज के दूर कहीं।
उससे ही मिलने बरसातें ,
नाविक के संग चलती हैं।।
लेकर उस वरद धारा को,
प्रेम पुंज बनी मेरी आशाएं।
क्यों धूम से विरचित हैं वे,
अनंत तड़ित की झंझावातें।।
दूर दिगंत दुर्लभ मन कोर,
पीता वहीं कहीं पर सोम।
उठती है भर विश्वास धरा से,
प्रतीक्ष दृगों की लंबी सांसें ।।
पार समंदर के रजत जड़ित,
तेरा ही यह निश्वास प्रकंपन।
लेकर तेरी विकल विरहता,
जलता मन अनजाना जीवन।।
पार क्षितिज के प्राण वहीं,
मुझे बुलाते एकाकी बन।
जीवन का तो सार यही है,
कहां ?मिलता मधु जीवन।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)