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17 Jan 2025 · 1 min read

खामोशी की जुबान

आजकल गुफ्तगू कुछ कम होती है,
जरूरत हो तो नजरें बोलती है

अल्फाज बेजा से हो गए हैं,
ये हालात कुछ नए नए हैं

तू कुछ न कहे और मैं समझ लूं
अबोली मैं और तुम पढ़ लो

कहने सुनने के दायरे से बाहर,
जीवन के नए पड़ाव पर खड़े हैं

आखिर भाषा तो लालसाओं की जबान होती है, इच्छाओं की दुकान का व्याख्यान करती है

सुनना है तो सुनो, दिल की धड़कन
कहना है तो खोलो मुस्कुराते नयन

मन की आंखें खुले तो सब समझ आता है,
ये बंद रहे तो फासलों का सन्नाटा है

बोल कर बेजा वक्त क्यों जाया करे,
चलो खामोशी की भाषा पढ़े

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