टीस…..
टीस…..
चलो न
कुछ और बात करते हैं
अपनी अपनी टीस से
मुलाक़ात करते हैं
नेह से देह की थकान
तो अधरों से तृप्ति हारी है
सच कहूँ तो
बीती हुई रात की
चुपके से हुई बात
कुछ तेरी पलक पर
तो कुछ मेरी पलक पर
अभी तक भारी है
जूही के फूलों में लिपटे
वो स्वप्निल लम्हे
अस्त व्यस्त से सलवटों में
अपनी गंध से
अलौकिक अनुभूति की
व्याख्या करते प्रतीत होते हैं
निर्वसन शरीर के उजास की चांदनी
एकान्तता से लिपट
स्मृति की उर्वरक धरा को
दीप की मद्धिम लौ में घटित
मधु पलों को
अपने शीतल प्रकाश से
सदा पल्लवित करती है
देखो
तुम्हारी हथेली पर
रेशमी अहसासों की चादर लपेटे
नेत्रों के घरोंदों को छोड़
एक नम लम्हा
इक मीठी टीस लिए आ बैठा है
जो दृग दूरी को मिटाता है
इस टीस में
कितनी मिठास होती है
तृप्ती के घन से
सदा अतृप्ति की बरसात होती है
सच
इस टीस के बहाने
तेरी और मेरी
हर लम्हा मुलाक़ात होती है
सुशील सरना