मातृत्व

हमारी प्रत्येक सामाजिक समस्या का समाधान या तो हमें सार्वभौमिक शिक्षा में दिखाई देता है, या फिर मातृत्व में, और कुछ हद तक यह दोनों ही एकदूसरे के पूरक हैं, परन्तु आज मैं मात्र मातृत्व की बात करूँगी ।
हम जिस मां का स्थान अपने साहित्य में इतना ऊपर रखते हैं, वहां यह भूल जाते हैं कि वह माँ एक नारी है , जिसका स्थान परिवार में, समाज में हमनेप्रायः आश्रिता का बना रखा है । एक आश्रित व्यक्ति न तो आत्मविश्वासी हो सकता है और न ही आत्मविश्वासी पीढ़ी खड़ी कर सकता है । वैज्ञानिकों काकहना है कि यदि मादा चिंपाजी आत्मविश्वासी हो तो उसके बच्चे सहज ही आत्मविश्वासी हो जाते हैं , नहीं तो हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं । अब प्रश्नहै कि क्या आज की नारी इतनी सक्षम है कि वह अगली पीढ़ी के चरित्र का निर्माण कर सके , उसे आत्मविश्वासी बना सके ? क्या हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियाँ ऐसी हैं, जहां ऐसी नारी का निर्माण हो सके ?
यहाँ मैं आँकड़ों में या इतिहास में नही जाना चाहती , सीधा मुद्दे पर आना चाहती हूँ । क्या हमारे पास ऐसी शिक्षा पद्धति है , जहां मानव मूल्यों की समझपैदा हो ? हमारी सारी शिक्षा पद्धति पश्चिम से उधार ली हुई है , जिसे हम अपनी धरती पर बोने का प्रयास करते चले आ रहे हैं। रचनात्मकता के अभाव मेंहमने प्रश्न करने तक की क्षमता खो दी है, पश्चिम के दिये हुए उतरों को किसी तरह आधा अधूरा आत्मसात् करके हम इन थके हारे किताबों का बोझाढोते विद्यार्थियों तक पहुँचा देते हैं, यही कारण है कि हमारे बच्चे उतना ही जानना चाहते हैं , जितना उनके जीवन यापन के लिए आवश्यक हो । उनके पाससीखने का उत्साह बचा ही नहीं ।शिक्षा मनुष्य के आनंद और आत्मिक विकास का साधन है, इसकी तो अब चर्चा भी नहीं होती ।
यही स्थिति हमारी राजनीति, न्याय प्रणाली, अर्थ व्यवस्था आदि की है । पश्चिम की धन संपत्ति ने हमें चकाचौंध कर रखा है, और हमसे जीवन के गहरेमूल्यों का चिंतन छीन लिया है, हमारे आत्मविश्वास को जंग खा रहा है, और हम ऐसा सोचते हैं कि धन और आत्मविश्वास का गहरा संबंध है, न किमनुष्य के चरित्र और आत्मविश्वास का । इन स्थितियों में यदि हर क़िस्म की हिंसा का जन्म नहीं होगा तो क्या होगा ? वह व्यक्ति जो हीनभावना सेपीड़ित है, वह निश्चय ही दूसरों के अधिकार अपने हाथ में लेना चाहेगा, ताकि स्वयं को सक्षम अनुभव कर सके , जो अपनी स्वतंत्रता का मूल्य नही जानतावह दूसरों की स्वतंत्रता का क्या सम्मान करेगा ?
अब प्रश्न है कि यह स्थितियाँ संभले कैसे, जो माँ बल दे सकती है वह बलहीन है, जो शिक्षा जीवन के सही मायने दे सकती है, वह आधी अधूरी है , इसदुश्चक्र से हम निकलें कैसे ? ऐसे हालात में नारी यदि शिक्षित हो भी जाए, तो भी सशक्तिकरण सीमित ही रहेगा ।
मेरे विचार में यहाँ आकर साहित्यकार की भूमिका अपना अर्थ पाने लगती है । यही वह प्राणी है जो आत्मनिर्भर हो सामाजिक मूल्यों पर चिंतन करनाचाहता है। आज भौतिक रूप से यह दुनियाँ छोटी हो गई है, परन्तु विचारों की दूरी अभी भी बनी हुई है । हमारे पास ऐसे साहित्यकार बहुत कम हैं जिनकेपास एक व्यापक दृष्टिकोण है, जो न केवल अपना इतिहास, भूगोल, दर्शन जानते हों , अपितु पश्चिम, अफ़्रीका , ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी , लैटिनअमेरिका के ज्ञान आदि से भी परिचित हो । वे उस अनुभव से इतना गहरा गुजरें कि जीने के नए तरीक़े ढूँढ लाए । भविष्य की इस नारी को , यहसाहित्यकार बनायेगा , और फिर यह नारी ऐसे मनुष्यों का निर्माण कर सकेगी , जो ऊर्जा पूर्ण शिक्षा पद्धति, न्याय पद्धति का निर्माण कर सकेगी , जिससेऐसे परिवारों का जन्म होगा, जहां मौलिक चिंतन की संभावना होगी, ऐसे राजनेता बनेंगे जो भ्रष्टाचारी नहीं होंगे, अपितु द्रष्टा होंगे । तब निश्चय ही हिंसानहीं होगी , जीवन एक उत्सव होगा ।
अब प्रश्न है कि ऐसे साहित्यकार का निर्माण कैसे हो ? यह बहुत गहरा प्रश्न है और हमारे साहित्यकारों से साधना की अपेक्षा रखता है ।सौभाग्य से हमारेपास आज भी हिंदी सुरक्षित है , और वह एक सक्षम भाषा है । वैज्ञानिक शब्दावली का अभाव होने के बावजूद विचारों को स्पष्टता दे सकती है ।यहकृषि प्रधान भाषा है । इसमें प्रकृति के सभी रूप, तथा संवेदनायें सुरक्षित हैं , जिन्हें पुनःजीवित कर हम अपने संस्कारों को परिष्कृत कर सकते है, अपनीदबी मौलिकता को उभार सकते हैं ।
मेरा सुझाव यह है कि कोई भी सुझाव अंतिम सुझाव नहीं है । हम अपनी यात्रा का आरंभ यहाँ से कर सकते हैं कि हमारे मन का गठन कैसे हुआ, उसमेंकितने अर्थहीन संस्कार और भय हैं , कहाँ हमारा तर्क खो जाता है और रूढ़ियाँ घेर लेती हैं , कहाँ हम अपने चिंतन की क्षमता को अनदेखा कर दूसरों कीदी हुई बैसाखियों पर आश्रित हो जाते हैं । पश्चिम से हमें कितना लेना है कितना छोड़ना है । प्रश्न हैं और जन्मते रहेंगे , और आज के साहित्यकार को इनसब से जूझना ही होगा, यदि एक सक्षम मां का निर्माण करना है तो !!!
आशा करती हूं, यह चर्चा आगे बढ़ेगी और हम एक-दूसरे के बौद्धिक, आत्मिक विकास में सहायता करेंगे ताकि ऐसे साहित्यकार का जन्म हो सके जोउच्च स्तर के ग्रंथ की रचना कर हमारे समय को नई दिशा दे सके , और एक भयहीन , उन्मुक्त, आत्मविश्वासी मां का निर्माण हो सके , जो अगली पीढ़ीका निर्माण कर सके ।
शशि महाजन- लेखिका
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