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10 Jan 2025 · 1 min read

खिड़की पर बैठा मृदु हृदय, बाहर के शोर को भांप रहा,

खिड़की पर बैठा मृदु हृदय, बाहर के शोर को भांप रहा,
या अवसाद के दलदल में फंसा, अंदर के कोलाहल से भाग रहा।
आँखों की तन्मयता से ईश्वरीय कृतियों को, विस्मृत होकर जांच रहा,
या विखंडित मन के भंवर में डूबकर, कोरी शून्यता को ताक रहा।
शहर के झिलमिल आवरण में, ये समय असंख्य अवसरों को बाँट रहा,
या फिर स्वयं की निरंतर गति में चलकर, वो भी बस समय को काट रहा।
नयनों से झड़ते नीर की आर में, प्रेम स्वयं के अग्न को झांप रहा,
या विरह की चीखों से विचलित हो, स्थायित्व में अपने काँप रहा।
स्वतंत्र छवियों की उन्मुक्तता से, उनके मुस्कान के नभ को आंक रहा,
या स्वयं के पग की बेड़ियाँ देख, नियति के चीथड़ों को टांक रहा।
स्वप्न मिलन के सार्थक हैं पथ पर, जो चिह्न ईर्ष्या का, इस मानस पर छाप रहा,
या सुदूर सागर में कल्पना की कश्ती में, इच्छाओं के टुकड़े, यथार्थ फांक रहा।
चहचहाते पंछियों के हर्षित स्वर में, मन मलंग की लय पर नाच रहा,
या निःशब्दिता की गूंज में उठते तरंग पर, मानस इस छंद को डांट रहा।
क्षणभंगुर क्षणों की जीवंतता को, अद्भुत और अनोखा ये राग रहा,
या स्मृतियों की शाश्वतता का, कोरे आँचल पर ठहरा एक दाग रहा।
खिड़की पर बैठा मृदु हृदय, बाहर के शोर को भांप रहा,
या अवसाद के दलदल में फंसा, अंदर के कोलाहल से भाग रहा।

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